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________________ करता रहता है, परन्तु इस बात को ठीक स्मरण रखना चाहिए कि जब तक ग्रामस्थविर, नगरस्थविर, कुलस्थविर, वा गणस्थविर राष्ट्रीय स्थविरों के साथ सहमत न होंगे, तब तक संघस्थविरों के उत्तीर्ण किए हुए प्रस्ताव सर्वत्र कार्य-साधक नही हो सकते / इस कथन से यह तो स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि संघधर्म और संघस्थविरों की कितनी आवश्यकता है ? इस लिये संघधर्म की संयोजना भली प्रकार से होनी चाहिए। इसीलिये सूत्रकर्ता ने दश स्थविरों की गणना में एक तरह के “पसत्थारथेरा" "प्रशात. स्थविरा" लिखे है, उनका मुख्य कर्तव्य है कि वे उक्त धर्मों का अपने मनोहर उपदेशों द्वारा सर्वत्र प्रचार करते रहे। जैसे कि-"प्रशासति-शिक्षयन्ति येते प्रशास्तारः धर्मोपदेशकास्ते च ते स्थिरीकरणात् स्थविराञ्चति प्रशातृस्थविरा."क्यों कि-प्रशातस्थविर प्राणीमात्र के शुभचिंतक होते हैं। इसीलिये वे अपने पवित्र उपदेशों द्वारा प्राणीमात्र को धर्म पक्ष में स्थिरीभूत करते रहते हैं। कारण किनियम पूर्वक की हुई क्रियाएँ सर्वत्र कार्य-साधक हो जाती है, किन्तु नियम रहित क्रियाएँ विपत्ति के लाने वाली बन जाती है, जिस प्रकार धूमशकटी (रेलगाड़ी)अपने मार्ग पर ठीक चलती हुई अभीष्ट स्थान पर निर्विघ्नता पूर्वक पहुंच जाती है, ठीक उसी प्रकार स्थविरों के निर्माण किये हुए नियमों के पालन से प्रात्मा व्यभिचारादि दोपों से बचकर धर्म मार्ग में प्रविष्ट होजाता है; जिस का परिणाम उस आत्मा को उभय लोक में सुखरूप उपलब्ध होता है। क्योंकि-यह बात भली प्रकार से मानी गई है कि-श्राहार की शुद्धि होने से व्यबहार-शुद्धि होसकती है / सो यावत्काल पर्यन्त श्राहार की शुद्धि नहीं कीजाती नावत्कालपर्यन्त व्यावहारिक अन्य क्रियाएं भी शुद्धि को प्राप्त नहीं होसकतीं। श्रतएव इन सात स्थविरों का संक्षेप मात्र से स्वरूप कथन किया गया है, साथ ही मान ही प्रकार के धर्म भी बतला दिये गए हैं, सो स्थविरों को योग्य है किवे अपने ग्रहण किंय हुए पवित्र नियमों का पालन करते हुए प्राणी मात्र के हितैपी बनकर जगत् के हितपी बने / उनिश्री-जननत्त्वकालिकाविकास स्वरूपवर्णनामिका तृतीया कलिका ममाता / अथ चतुर्थी कलिका सुश पुरुपो ! पिछले प्रकरणों में सात धर्मों का संक्षेपता से वर्णन किया गया है, जिसमें लौकिक वा लोकोत्तर दोनों प्रकार के धर्म और स्थविरों की नक्षेप रूप से व्याख्या की गई है क्योंकि-यदि उन धमों की विस्तार पूर्वक व्याख्या लिखी जानी तो कतिपय महत् पुस्तकों की संयोजना करनी
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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