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________________ न करने चाहिएं क्योंकि-दर्शन (निश्चय) के ठीक होने पर ही सव क्रियाएँ सफल हो सकती हैं / यदि सम्यक्त्व में निश्चलता नहीं तो फिर व्रतों में भी अवश्यमेव शिथिलता पाजायगी। मुनि का 26 वां गुण यह है कि वह वेदना को शांति पूर्वक सहन करे। 27 मारणांतिकाध्यासनता-मारणांतिक कष्ट के श्राजाने पर भी अपनी सुगृहीत वृत्ति से विचलित न होना चाहिए अर्थात् यदि मरण पर्यन्त उपर्सग भी आजावे तो भी अपने नियमो को न छोड़े कारणक-साधुजनों के सखा कष्ट ही होते है जिनके अाजाने से शीघ्र कार्य की सिद्धि होजाती है। इस लिये मुनि मारणांतिक कट को भी भली प्रकार सहन करे। शास्त्र में इस प्रकार मुनि के 27 गुण वर्णन किये गए हैं किन्तु प्रकरण ग्रंथों में 27 गुण इस प्रकार भी लिखे हैं जैसेकि-१ अहिंसा 2 सत्य 3 दत्त 4 ब्रह्मचर्य 5 अपरिग्रह व्रत 6 पृथ्वी 7 अप्काय 8 तेजोकाय 6 वायुकाय 10 बनस्पतिकाय 11 त्रसकाय 12 श्रुतेन्द्रिय निग्रह 13 चनुरिन्द्रिय निग्रह 14 नाणेन्द्रिय निग्रह 15 जिह्वेन्द्रिय निग्रह 16 स्पर्शेन्द्रिय निग्रह 17 लोभ निग्रह 18 क्षमा 16 भाव विशुद्धि 20 प्रतिलेखना विशुद्धि 21 संयम योग युक्ति 22 कुशल मन उदीरणा अकुशल मन निरोध 23 कुशल वचन उदीरणा और अकुशले वचन निरोध 24 कुशल काय उदीरणा और अकुशल काय निरोध 25 शीतादि की पीड़ा सहन करना 26 मारणांतिक उपसर्ग का सहन करना 27 इस प्रकार से भी 27 गुण प्रकरण ग्रंथों में लिखे गए है परन्तु यह सव गुण पूर्वोक्त गुणों के अन्तर्गत हैं। उक्त गुणों से युक्त होकर मुनि नाना प्रकार के तपोकर्म से अपने अन्तः करण को शुद्ध करने के योग्य हो जाता है और नाना प्रकार की आत्मशक्तियें (लब्धिएं) उसमें प्रकट होजाती हैं / यथाः-मनोवल-मन का परम दृढ़ और अलौकिक साहस युक्त होना वाग्वल-प्रतिज्ञा निर्वाह करने की शक्ति का उत्पन्न होजाना कायवल नुधादि के लग जाने पर शरीर की कांति का बने रहना "मनसाशापानुग्रहकरणसमर्थ मनसे शाप और अनुग्रह करने में समर्थ 'वचमाशापानुग्रहकरणसमर्थ” वचन से शाप और अनुग्रह करने में समर्थ-"कायनशापानुग्रहकरणसमर्थ"-काय द्वारा शापानुग्रह करने में समर्थखेलोपविप्राप्त-मुख का मल (निष्टीवन) सकल रोगों के उपशम करने में समर्थ "जल्लोपविप्राप्त"-शरीर का प्रस्वेद वा शरीर मल रोगों के उपशम करने में समर्थ-"वित्रीपविप्राप्त"-मूत्रादि के विंदु तथा वि-विष्ठा प्र-प्रश्रवण ( सूत्र) यह सव तप के माहात्म्य से औपधिरूप हो रहे हैं "श्रामर्षणोपधि" हस्तादिका स्पर्श भी औपधिरूप जिनका हो रहा है "सर्वोषधिप्राप्त"-शरीर के सर्व
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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