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________________ ( 124 ) मे किसी प्रकार से भी मनुष्यत्व भाव में परस्पर विरोध नहीं होता तथापि गुणों की अधिकता वा न्यूनता में अवश्यमेव भेद देखा जाता है / इसी कारण मनुष्यों की संज्ञाओं में भी भेद पड़ जाता है / सो गुणों की अधिकता होने पर ही साधु शब्द व्यवहृत हुआ करता है। संज्ञा और संज्ञी के अभेद होने से ही 'जन शब्द' में साधु शब्द किया जाता है जैसे कि-अमुकजन साधु है। जिस प्रकार ज्येष्ठमास की उष्णता से तप्त और जल की प्यास से पीड़ित परुष को सघन वृक्षों से आच्छादित एक पवित्र सरोवर का बड़ा भारी सहारा होजाता है ठीक उसी प्रकार सांसारिक, शारीरिक वा मानसिक दुःखों से तप्त हृदय वाले जनों को साधु पुरुषों कासहारा होता है क्योंकि साधु जन . इस प्रकार सांसारिक आत्माओंकी रक्षा करते हैं जिस प्रकार द्वीप समुद्र में डूबते हुए प्राणी की रक्षा करता है। साधुओं की आत्माएं शान्तरूप तपोवल से तेजस्वी होती है / इच्छाओं के न होने से उनका मन सदा प्रफुल्लित रहता है और मस्तक पर कांति विराजमान होती है, उनकी मधुरवाणी में वात्सल्य भाव विद्यमान होता है। उनकी निस्पृहता सांसारिक लक्ष्मी को तृण समान मानती हुइ प्राणी मात्र के उद्धार करने में सहायक वनती है / उनका स्वाभाषिक वा अलौकिक सौंदर्य प्राणीमात्र के हृदय को मुग्ध कर लेता है। उन . की पवित्र योगमुद्रा ससार की अनित्यता और आत्मिक सुख की ओर झुक जाने के लिए शिक्षा देती है। उनकी पवित्र मनोवृत्ति प्राणीमात्र के हितके लिये स्फुरायमान होती है। अतएव जगत्वासी जीवों को साधु, महात्मा शरण्यभूत है। यह महापुरुष गुणों के धारण करने से ही प्राणीमात्र के लिए शरण्यरूप हुए हैं। क्योंकि-संसार में यदि विचार कर देखा जाय तोगुण ही पूज्य है नतु शरीर; इसलिये श्री भगवान् ने साधु के 27 गुण वर्णन किए हैं जो निम्नलिखितानुसार हैं। 1 प्राणातिपातविरमण-सर्व प्राणियों को अपने प्राण प्रिय हैं। निज प्राणों की रक्षा करने के लिये अनेक प्रकार के उपायों की रचना करते हैं। अतएव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म वा स्थूल यावन्मात्र संसार में जीव है उनकी मन से, वाणी से, वा काय से कदापि हिंसा न करे और न अन्य आत्माओं से उनकी हिंसा करवाए तथा जो जीव हिंसक क्रियाएँ करनेवाले है उनकी अनुमोदना भी न करे कारणकि-हिंसावृत्ति करण और योगों की स्फुरणा पर ही निर्भर है सो स्वयं करना, औरों से कराना तथा हिंसा करने वालों की अनुमोदना करना इनकी करण संज्ञा है। अपितु मन वचन और काय इनकी योगसंज्ञा है सो साधु पुरुष तीनों योग और तीनों करणों द्वारा हिसा का परि
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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