SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही रेचक, पूरक और कुंभक तथा द्रव्य और भाव प्राणायाम का वर्णन किया गया है। यावन्मात्र शरीर में वायु हैं उनकी गति वा उनका निरोध; साथ ही निरोध का शारीरिक वा आत्मिक फल इन सब बातों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है / इस पूर्वके 13 वस्तु हैं और एक करोड 56 लक्ष इस के पदों की संख्या है / 13 क्रियाविशालपूर्व-इस पूर्व में यावन्मात्र क्रियाएं हैं उन सव का सविस्तर स्वरूप वर्णन किया गयाहै जैसे कि-कायिकी क्रियादि तथा पदक्रिया, छन्दक्रिया; सारांश इतना ही है कि--क्रिया शब्द की व्याख्या भली प्रकार से कीगई है और इस पूर्व के 30 वस्तु हैं तथा नव करोड़ इसके पदों की संख्या है / 16 लोकविन्दुसार पूर्व-लोक में विन्दुवत् सारभूत पदार्थों के वर्णन करनेवाला यह पूर्व है क्योंकि-जिसप्रकार अक्षर के मस्तक पर विन्दु सारभूत होता है ठीक उसी प्रकार जगत् में यह पूर्व सारभूतहै और इस पूर्व के 25 वस्तु हैं तथा साढे बारह करोड़ इस के पदों की संख्या है / इस प्रकार संक्षेप से 14 पूर्वी के समास विपय वर्णन किया गया है। _ सोलह हजार तीनसौ 83 हाथियोंके प्रमाण मपीसे यह 14 पूर्व लिखे जाते है परन्तु यह पूर्वी के ज्ञान विषय उपमा दी गई है परंच यह विद्या लिखने में नहीं आसक्ती यह सब विद्या केवल अनुभव के विचार पर ही अवलम्बित है। इस प्रकार दृष्टिवादांग के तृतीय भेदका वर्णन किया गया है। चतुर्थ भेद अनुयोगरूप है। सो वह अनुयोग दो प्रकार से वर्णन किया गया है। जैसे कि मूल प्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग-१ मूल प्रथमानुयोग-में तीर्थंकरों के पूर्व जन्म का वृत्तान्त, जिस जन्म में उनको सम्यक्त्व का लाभ हुश्रा उस जन्म से लेकर उनके सर्व जन्मों का अधिकार, स्वर्गीय सुख, स्वर्ग की श्रायु का परिमाण, वहां से च्यवकर माता के गर्भ में आना. फिर जन्म, देवों द्वारा जन्मोत्सव किया जाना, फिर योग्य अवस्था होजाने पर दीक्षा. विहार, तपोविशप, केवलोन्पत्ति, जिनपद भोग, सिद्ध गमन इत्यादि विषयों का सविस्तर वर्णन पाया जाता है / इतना ही नहीं श्रीसंघ की स्थापनादि विषयों का भी उल्लेख है। 2 गंडिकानुयोग-इस अनुयोगम कुलकरों, तीर्थकरों, बलदेवों, वासुदेवों, गणधरों, हरिवंश आदि कुलों की गंडिकाओंका वर्णन किया गया है / यह अनुयोग ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्त्व का है क्योंकि-सव विपयों का वड़ी विचित्र रीति से वर्णन किया हुआ है / उक्त अनुयोग होनेसे यह दृष्टिवादांग का चतुर्थ भेद है। पांचवां भद दृष्टिवादांग का चूलिकारूप है क्योंकि-जो परिक्रम सूत्र और पूर्व तथा अनुयोग में वर्णन किया गया है उन सबका सारांश चूलिका प्रकरण में प्रतिपादन किया हुआ होता है / सो यह सब प्रसंगवश लिखा गया है परन्तु 19 एकादशांगशास्त्र और चतुर्दश पूर्व यह सब मिलकर २५होते हैं।
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy