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________________ ( 110 ) सुयोग्य अमात्यादि को राज्य का भार समर्पण कर आप निश्चिन्त हो जाता है ठीक उसी प्रकार आचार्य सुयोग्य शिष्यको गच्छ का भार देकर श्राप निश्चिन्त होकर समाधि में लीन हो जाता है। इसे ही भारप्रत्यवतारणता विनय कहते हैं। इसके चार भेद प्रतिपादन किये गए हैं जैसे कि-जो शिष्य असंगृहीत अर्थात् जिनके गुरु आदि काल कर गए हैं और क्रोधी होने के कारण या किसी अन्य कारणवश उन्हें कोई संगृहीत न करता हो ऐसे शिष्य समूह को आचार्य या उसका शिष्य अपने पास रक्खे 1 एवं नूतन दीक्षित शिष्यों को ज्ञानाचार 1 दर्शनाचार 2 चारित्राचार 3 तपाचार 4 और बलवीर्याचार 5 के सिखलाने के लिये अपने पास रक्खे और विधिपूर्वक उक्त आचार विधि से उनको शिक्षित करे 2 / यदि साधर्मिक साधु ग्लानावस्था को प्राप्त हो गया हो अर्थात् रुग्णावस्था में हो तो प्रेमपूर्वक यथाशक्ति उसकी सेवा भक्ति करे क्योंकि रोगी की सेवा करने से कर्मों की निर्जरा और अनंत ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है 3 यदि साधर्मिक जनों में क्लेष उत्पन्न होगया हो तो प्राचार्य के शिष्य का कर्तव्य है कि ऐसा समय उपस्थित हो जाने पर विना पक्ष ग्रहण किये माध्यस्थ भावका अवलवनकर सम्यग् प्रकार श्रुतव्यवहारका वर्ताव करता हुआ उस कलह के क्षमण के वास्ते सदवकाल उद्यत रहे। शिष्य ने फिर प्रश्न किया कि हे भगवन् ! क्लेषके शान्त करने के वास्ते क्यों उद्यत रहे ? इस के उत्तर में गुरु लौकिक वा लोकोत्तर फलादेश दिखलाते हुए कहते हैं किहे शिप्य ! जव क्लेष शान्त होजायगा तव साधर्मिकों में परस्पर कठोर शब्द भाषण अल्प होजाएगा क्योंकि कलह के समय अनेक अपशब्द बोलने पड़ते है। अतिरिक्त क्रोधवश होते हुए मंभायमान न होंगे अर्थात् अव्यक्त शब्द न बोले जाएंगे / वाग् युद्धसे बचे रहेंगे / क्रोध, मान, माया और लोभ के चक्र से विरक्त रहेंगे / परस्पर विनय शब्दों को छोड़कर 'तूंतूं' भी नहीं करेंगे अपितु उक्त वातों के स्थानपर संयम की अत्यन्त वृद्धि होगी। संवर की भी अत्यन्त वृद्धि होजायगी / ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप समाधि बढ़ेगी। इतना ही नहीं अपितु अप्रमत्त होकर संयम और तप द्वारा अपनी आत्मा की शुद्धि करते हुए विचरेंगे / इसीका नाम भारप्रत्यवतारणता विनय है / अत. इसप्रकार स्थविर भगवंतोंने आठ प्रकार की गणिसपत् प्रतिपादन की है। श्री सुधा स्वामी श्री जंवू स्वामि प्रति कहते हैं कि-जिस प्रकार मैंने श्री श्रमण भगवान् महावीर प्रभुसे इस विषय में श्रवण किया था उसी प्रकार मैंने तुम्हारे प्रति कहा है। इस प्रकार दशाश्रुतस्कंधसूत्र के चतुर्थाध्ययन की समाप्ति की गई है / सो आचार्य उक्त संपत् के धारण करने वाला अवश्य हो / श्राचार्य के छत्तीस गुण कोई 2 आचार्य इस प्रकार से भी मानते
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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