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________________ ( 104 ) साराश-शिष्य ने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! विक्षेपणाविनय किसे कहते हैं और उसके कितने भेद हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में गुरु ने प्रतिपादन किया कि हे शिप्य ! मिथ्यात्व से हटाकर धर्म में स्थापन करना उसको विक्षेपणा विनय कहते हैं सो इस विनय के मुख्य चार भेद हैं जैसे कि-जिन आत्माओं ने धर्म के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझा इतनाही नहीं किन्त पदार्थों के ठीक स्वभाव को तथा सम्यग् दर्शन ज्ञान और चारित्र के मार्ग को ठीक नहीं पहचाना उन व्यक्तियों को श्री अर्हन् देवद्वारा प्रतिपादन किये हुए सत्यधर्म के पथ में लगाना चाहिए / इस विनय के कथन करने का उद्देश्य यह है कि-जैनेतर लोगों को जैन धर्म में स्थापन करना चाहिए 1 फिर जिन्होंने धर्मपथ सम्यगरूपसे धारण कर लिया हो उनजीवों को सर्व वृत्तिरूप धर्म में स्थापन करना चाहिए अर्थात् जिन आत्माओं की इच्छाएँ दीक्षा धारण करने की हों उन आत्माओं को दीक्षित कर साधुसंघमें स्थापन करना चाहिए अर्थात् उनको साधर्मिक वनाना चाहिए 2 जब कोई प्रात्मा धर्मपथ से पतित होता हो वा किसी कारणवश धर्म छोड़ता हो तो सम्यग्तया शिक्षितकर धर्म पक्ष में स्थिर करदेना चाहिए क्योंकि शिक्षित किया हुआ भव्य श्रात्मा धर्म में शीघ्रही निश्चलता धारण करता है 3 इतना ही नहीं किन्तु धर्म को हित, सुख और सामर्थ्य के लिये तथा मोक्ष के लिये भवभवान्तर में साथ ही चलने के लिये धारण करना चाहिए अर्थात् सुखादि के लिए धर्म में सदैव कटिवद्ध रहना चाहिए 4 इसके कथन करने का सारांश केवल इतना ही है कि इस क्रम से धर्म प्रचार करते हुए प्राणीमात्र को मोक्षमार्ग में प्रविष्ट करना चाहिए / साथही सकल कर्मक्षय करके आप भी निवाणप्राप्ति के लिए उद्यम करना चाहिए साथही उपदेशक वर्ग को इस सूत्र से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि-जिन श्रात्माओं ने पहिले कभी धर्म का परिचय प्राप्त नहीं किया उन आत्माओं को ही धर्मोपदेश द्वारा शिक्षित करना चाहिए किन्तु जिन्होंने धर्म के स्वरूप को जाना हुआ है उनको तो केवल साधार्मिक बनाने काही पुरुषार्थ करना चाहिए अतएव जैनेतर लोगों में धर्मोपदेश करने की सूत्रकर्तीने विशेष आवश्यकता प्रतिपादन की है सो इसी का नाम विक्षेपणा विनय है। अव सूत्रकार विक्षेपणा विनय के अनन्तर दोपनिर्धातना विनय के विषय में कहते हैं: सेकिंतं दोसनिग्घायणा विणय ? दोसनिग्घायणा विणय चउबिहा पएणत्ता तंजहा–कुद्धस्स कोहविणएत्ता भवइ 1 दुस्स दोसं एिगिरिहत्ता भवइ 2 कंखियस्स कंखछिंदित्ता भवइ 3 आया सुप्पणिद्धितयावि भवइ 4 सेतं दोसनिग्यायणा विणए //
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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