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________________ पुनःशिष्य ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! धारणामति किसे कहते हैं ? गुरुने उत्तर में प्रतिपादन किया कि हे शिष्य ! धारणामति के भी छः भेद वर्णन किए गए हैं जैसे कि एकही वार वहुत से प्रश्नों को धारण करले / बहुत प्रकार से प्रश्नों के भावों को धारण करले 2 पुरातन ज्ञान (प्राचीन को धारण करे 3 नय और भंग तथा सप्तभंगी आदि के भावों को धारण कर / 4 परन्तु सूत्र वा शिष्यादि के निश्राय (आथय) विना ज्ञान को धारण करे 5 फिर विना सन्देह ज्ञान को धारण करे अर्थात् संशय रहित ज्ञान की धारणा करे 6 सो इसी को धारणामति संपत् कहते है।. सारांश-जो सूत्र में मतिसंपत् के मुख्य चार भेद किये गए थे अव शिष्य ने चार भेदों के उत्तर भेदों के विषय प्रश्न किया है कि-हे भगवन् ! अवग्रहमति के कितने भेद किये गये हैं ? इस के उत्तर में गुरु न कथन किया कि हे शिष्य ! अवग्रह मति के छ भेद प्रतिपादन किये गये हैं जैसेकि- जव ही किसी ने कोई प्रश्न किया उसी समय उसके भावोंको जान लेना यह अवग्रहमति का प्रथम भेद है इसी प्रकार आगे भी जान लेना चाहिए जैसेकि-एक ही बार बहुत से प्रश्न कर दिये उनको एक ही बार सुनकर अवगत कर लेना 2 किन्तु अपनी बुद्धि में उन प्रश्नों को भिन्न 2 प्रकार से ही स्थापन करना अर्थात् विस्मृत न होने देना३ अपितु दृढ़तापूर्वक उन प्रश्नों को धारण करना जिससे वे अस्खलित रूपसे बने रहें 4 फिर किसी की सहायता विना उन प्रश्नों को धारण करना जैसे-ऐसे न होकि हे शिष्य ! तू ने इसको स्मृति रखना वा पत्र संचिकादि में स्मृति रूप लिख लेना तथा किसी ग्रंथ के देखने की जिज्ञासा प्रगट करना 5 साथ ही जिस प्रश्नको स्मृति किया है उसमें किसी प्रकार से भी संशय न होवे जैसे कि उसने क्या कहा था? क्या यह था-वा कुछ और भी पूछा था? इसप्रकार के संशय न होने चाहिएं 6 यही अवग्रहमति संपत् के पद भेद है। परन्तु धारणामांत संपत् के पट् भेद निम्न प्रकार वर्णित है जैसेकि एक वार सुनकर बहुत ही धारण कर लेवे 1 वा बहुत प्रकार से धारण करे२ जिस बात को हुए चिरकाल होगया हो उसे भी स्मृति पथ में रखे कारण कि-पुरातन वातों के आधारपर ही नूतन नियमों की सृष्टि रची जासकती है पुरातन वाते ही नूतन क्रियाओं के करने में सहायक होती है जैसेकि-अमुक समय यह बात इस प्रकार की गई थी 3 तथा जो ज्ञान दुर्द्धरहो जैसेकि-भंग नय निक्षेपादि, उस ज्ञान को भी धारण कर रक्खे क्योंकि भंगादिका ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति सहज में ही धारण नहीं कर सकता अतएव आचार्य को अवश्यमेव उक्त प्रकार के ज्ञान को स्मृति में रखना चाहिए // 4 //
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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