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चतुर्विशति जिनस्तवन.
जिन वाणी जारता । जि० । जावा दे मिथ्यामत नार । प्या॥जि०॥ ७॥ हुं अपराधी देवनो। जि । करीये हे मुजने वगसीस प्याजि०॥ निंदक पारउतारणा । जि । तूही हे जग निर्मल इस ॥ प्या। जि ॥७॥ बालक मूर्ख आकरो। जिन धीगेहे वलि अति अविनीत । प्या । जि । तोपिण जन के पालिये। जि ॥ उत्तम हे जननी ए रीत । प्या । जि ॥ ए ॥ ज्ञान हीन अविवेकीया। जि। हठी हे निंदक गुण चोर । प्या । जिण । तोपिण 'मुऊने ता. रीये। जि। मेरी हो तोरोमोहनी दोर॥ प्या ॥ जि० ॥१०॥ त्रिसला नंदन वीरजी। जि । तूतो है श्रासाविसराम। प्याजजिणअजरअमरपद दीजीये। जि। थाउंहे जिमश्रातमरामप्या जि॥१॥
॥ इति श्री महावीर जिनस्तवनम् ॥