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________________ ९.] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [तृतीयो वर्ग: नवमस्य नु भदन्त । अगस्यानुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयस्य वर्गस्य द्वितीयस्याध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः १) यह पाठ प्रायः प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ मे आता है। अतः उसको संक्षिप्त करने के लिये यहां 'उत्क्षेप:' पद दे दिया गया है । दूसरे सूत्रों मे भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है। जिस प्रकार श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षित होकर धन्य अनगार ने पारण के दिन ही आचाम्ल व्रत धारण किया था इसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार ने भी किया। जिस प्रकार 'व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वितीय शतक में स्कन्दक सन्यासी ने श्री श्रमण भगवान के पास ही दीक्षित हो कर तप द्वारा अपना शरीर कृश किया था ठीक उसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार का शरीर भी तप से कृश हो गया। इस सूत्र से हमे यह शिक्षा मिलती है कि जब कोई अपना लक्ष्य स्थिर कर ले तो उसकी प्राप्ति के लिये उसको सदैव प्रयत्न-शील रहना चाहिये और दृढ संकल्प कर लेना चाहिए कि वह उस पद की प्राप्ति करने मे बड़े से बड़े कष्ट को भी तुच्छ समझेगा और अपने प्रयत्न में कोई भी शिथिलता नहीं आने देगा । जब तक वह इतना दृढ संकल्प नहीं करता तब तक वह उस तक नहीं पहुंच सकता । किन्तु जो अपने ध्येय की प्राप्ति के लिये एकाग्र-चित्त से प्रयत्न करता है वह अवश्य और शीघ्र ही वहां तक पहुंच जाता है, इसमे लेश-मात्र भी सन्देह नहीं । ध्यान रहे कि इसके लिये गम्भीरता की अत्यन्त आवश्यकता है । अव सूत्रकार इसीसे सम्बन्ध रखते हुए कहते है: तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे, गुणसिलए चेतिए, सेणिए राया। सामी समोसढे परिसा णिग्गता, राया णिग्गतो । धम्म-कहा, राया पडिगओ, परिसा पडिगता । तते णं तस्स सुणक्खत्तस्स अन्नया कयाति पुव्वरत्तावरत्तकाल-समयंसि धम्मजा० जहा खंदयस्स बहू वासा परियातो, गोतमपुच्छा, तहेव कहेति जाव
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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