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________________ ८४] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्ग.. ~ के आते ही उन्होंने प्रातः काल ही श्री भगवान् की आज्ञा ली और आत्म-विशुद्धि के लिये पञ्च महाव्रतों का पाठ पढ़ा तथा उपस्थित श्रमण और श्रमणियों से क्षमा प्रार्थना कर तथा-रूप स्थविरों के साथ शनैः २ विपुलगिरि पर चढ़ गये। वहां पहुंच कर उन्होंने कृष्ण-वर्णीय पृथिवी-शिला-पट्ट पर प्रतिलेखना कर दर्भ का सस्तारक विछाया और पद्मासन लगाकर बैठ गये। फिर दोनों हाथ जोड़े और उनसे शिर पर आवर्तन किया। इस प्रकार पूर्व दिशा की ओर मुख कर 'नमोत्थुणं' के द्वारा पहले सव सिद्धों को नमस्कार किया, फिर उसीसे श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को भी नमस्कार किया और कहा कि हे भगवन् । आप वहीं पर बैठ कर सब कुछ देख रहे हैं अतः मेरी वन्दना स्वीकार करे और मैंने पहले ही आपके समक्ष अष्टादश पापों का त्याग किया था अब मैं आपकी ही साक्षी देकर उनका फिर से जीवन भर के लिये परित्याग करता हूं । इनके साथ ही साथ अव अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों का भी परित्याग करता हूं । अपने परम प्रिय शरीर के ममत्व को भी छोड़ता हूं तथा आज से पादोपगमन नामक अनशन व्रत धारण करता हूं। इस प्रकार श्री भगवान् की वन्दना कर और उनको साक्षी कर उक्त प्रण किया और उसीके अनुसार विचरने लगे । उन्होंने सामायिक आदि से लेकर एकादश अगों का अध्ययन किया और एक मास तक अनशन व्रत धारण कर अन्त मे समाधि-मरण प्राप्त किया। उनकी सब दीक्षा की अवधि केवल नौ मास हुई, जिस मे साठ भक्त अशन छेदन कर आलोचना द्वारा सर्वोत्तम उक्त समाधि-मरण प्राप्त किया। __ अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यहां कहा गया है कि उन्होंने साठ भक्तों का परित्याग किया तो प्रत्येक को जिज्ञासा हो सकती है कि भक्त किसे कहते है ? उत्तर मे कहा जाता है कि प्रत्येक दिन के दो भक्त अर्थात् आहार या भोजन होते हैं । इस प्रकार एक मास के साठ भक्त हो जाते हैं। इसके विपय मे वृत्तिकार भी यही लिखते है-"प्रतिदिनं भोजनद्वयस्य परित्यागात्रिशता दिनैः पष्टिर्भक्तानां त्यक्ता भवन्ति” अर्थ स्पष्ट कर दिया गया है। इस प्रकार जव धन्य अनगार ने एक माम पर्यन्त अनशन धारण किया तो साठ भक्तो के परित्याग में कोई सन्देह ही नहीं रहता। उन भक्तो का परित्याग कर धन्य अनगार स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुए यह सब स्पष्ट ही है।
SR No.010856
Book TitleAnuttaropapatikdasha Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1936
Total Pages118
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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