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अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः सन्धिभिर्गङ्गा-तरङ्गभूतेनोरः-कटकदेश-भागेन,शुष्क-सर्प-समानाभ्यां बाहुभ्याम् , शिथिल-कटालिकेव चलभ्यामग्र-हस्ताभ्याम् , कम्पन-वातिक इव वेपमानया शीर्ष-घव्या (लक्षितः), अम्लानवदन-कमलः, उद्भट-घट-मुखः, उद्वृत्त-नयनकोशः, जीवं जीवेन गच्छति, जीवं जीवेन तिष्ठति, भाषां भाषिष्य इति ग्लायति३ । अथ यथानामकेगाल-शकटिकेति वा यथा स्कन्दकस्तथा यावद् हुताशन इव भस्म-राशि-प्रतिच्छन्नस्तपसा, तेजसा, तपस्तेजःश्रियोपशोभमानस्तिष्ठति । (सूत्रम् ३)
पदार्थान्वयः-धन्ने-धन्य अणगारे-अनगार णं-दोनों वाक्यालङ्कार के लिए है सुक्केणं-मांस आदि के अभाव से सूखे हुए भुक्खेणं-भूख के कारण रूखे पडे हुए पादजंघोरुणा-पैर, जड्डा और ऊरु से विगततडिकरालेणं-मांस के क्षीण होने से पार्श्व भागों की अस्थियां नदी के तट के समान भयङ्कर रूप से जिसमें उन्नत हो रही थीं ऐसे कडिकडाहेण-कटिरूप कटाह-कच्छप-पृष्ठ या भाजन विशेष से, पिट्टमवस्सिएणं-यकृत् , प्लीहा आदि के क्षीण होने से पीठ के साथ मिले हुए उदरभायणेणं-उदर-भाजन से, जोइजमाणेहि-निर्मास होने से दिखाई देते हुए पांसुलिकडएहि-पार्श्वस्थि-कटक से, अक्खसुत्तमालाति वा-रुद्राक्ष के दानों की माला अथवा गणिजमालाति वा-गिनती की माला के दाने जिस प्रकार गणेजमाणेहि-पृथक् २ गिने जा सकते है इसी प्रकार मांस के अभाव से पृथक् २ गिने जाने वाले पिट्टिकरंडगसंधीहि-पृष्ठ-करण्डक की मन्धियों से, गंगातरङ्गभूएणंगगा नदी की तरङ्गों के समान उरकडगदेसभाएणं-वक्षःस्थल रूपी कटक-वंशदलमयचटाई के विभाग से सुक्कसप्पसमाणहि-सूखे हुए सर्प के समान बाहाहिं-भुजाओं से सिढिलकडालीविव-शिथिल लगाम के समान चलंतेहिं-कॉपते हुए अग्गहत्थेहिअग्र-हस्त-हाथों से कंपणवातियो विव-कम्पन-वातिक रोग वाले पुरुष के समान वेवमाणीए-कम्पायमान सीसघडीए-शिर रूपी घटी से युक्त वह धन्य अनगार पवायवदणकमले-मुरझाए हुए मुख वाला उन्भडघडामहे-ओंठों के क्षीण होने से भयकर घट के मुग्य के ममान मुख-कमल वाला उव्वुडणयणकोसे-जिनके नयन