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भूमिका
प्रस्तुत पुस्तक केवल प्रशस्ति-संग्रह हो नहीं है, यह विचार रत्नों की मंजूषा भी है। वर्तमान में साहित्य की नाना धाराएं विकसित हुई हैं। उनमें परमोपयोगी धारा चिन्तन-प्रधान साहित्य की है। शोध की धारा भतीत का रूप हमारे सामने लाती है, पर मनुष्य तो मात्र अपने वर्तमान को बनाने में ध्यन है । माज का मनुष्य स्वयं स्रष्टा है । वह इतिहास पढने की अपेक्षा इतिहास गढ़ने में अधिक विश्वास रखता है। भाज जो प्रशासन-सूत्र भोर भयं व्यवस्थाएँ बदों और बदली जा रही हैं, वे किसी प्राचीन दर्शन या इतिहास के प्राधार र नहीं, वे मनुष्य के वर्तमान चिन्तन और वर्तमान विवेक के भाघार पर बदली
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पौर बदलो जा रही है । प्रस्तुत पुस्तक में जीवन और समाज की गम्भीर शस्याएं तत्र यत्र ही नहीं, सर्वत्र सुलभ हैं ।
हजार हो जाएं,
रुपया है,
प्रश्न होता है, दुःख मानसिक है या परिस्थितिजन्य ? परिस्थिति दु.ख की नमित है, पर स्रष्टा नहीं । मनुष्य का मनोबल दुःख को सुख में भी बदल [कता है । सामान्यतया माना जाता है, धमीरी सुख का कारण है, गरीबी दुख कारण है। विचारणीय यह है कि वास्तव में गरीब कौन है ? एक व्यक्ति के पास दस हजार रुपए हैं। वह चाहता है कि बीस माराम से जिन्दगी कट जाए। दूसरे के पास एक लाख आशा है कि एक करोड़ हो जायें तो शान्ति से जीवन बोते एक करोड रुपया है, वह भी चाहता है, दस करोड़ हो जाएं तो देश वा बा उद्योगपति बन जाऊँ । पब देखना यह है कि गरीब कौन है ? पहले व्यक्ति को इस हजार की गरीबी है, दूसरे की निन्यानवे लाख की और तीसरे भी नो करोड़ो मनौवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो वास्तव में तीसरा हो कि गरीब है; क्योंकि पहले की वृत्तियाँ जहाँ दम हजार के लिए, दूसरे निन्यानवे लाख के लिए तड़पती है, यहाँ तीसरे को नौ बरोड के लिए।
वह भी के पास
। तीसरे