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________________ रानवता के उन्नायक ११५ वे चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को विकास का पूरा प्रवसर मिले; लेकिन पह तभी सम्भव हो सकता है, जबकि मनुष्य स्वतन्त्र हो । स्वतन्त्रता मे उनका मभिप्राय यह नहीं है कि उसके कार कोई अंकुश हो न हो और वह मनमानी करे । ऐसी स्वन्त-यता तो अराजकता पैदा करती है और उससे समाज सगठित नहीं, छिन्न-भिन्न होता है। उनके कथनानुसार--"स्वतन्त्र वह है, जो न्याय के पीछे चलता है। स्वतन्त्र वह है, जो अपने स्वार्थ के पीछे नहीं चलता । जिसे अपने स्वार्थ और गुट मे हो ईश्वर-दर्शन होता है, वह परतन्त्र है।" मागे वै फिर कहते हैं- "मैं किसी एक के लिए नहीं कहता । चाहे साम्यवादी, ममाजवादी या दूसरा कोई भी हो, उन्हें समझ लेना चाहिए कि दूम, का इस शर्त पर समर्थन करना कि वे उनके पैरों तले निपटे रहे, स्वतन्त्रता का समर्थन नहीं है।" कुशल प्रशासक वे किसी भी वाद के पक्षगती नहीं हैं । वे नहीं चाहते कि मानव पर कोई भी ऐसा बाह बन्धन रहे, जो उसके मार्ग को अवरुद्ध और विकास को कुण्टिन करे । पर इससे यह न समझा जाए कि संगठन अथवा अनुशासन मे उनका विश्वास नहीं है। वे स्वय एक सम्प्रदाय के भावार्य हैं और हजारों साधू. साध्वियों के सम्प्रदाय और शिप्य महली के मुखिया है। उनके अनुशासन को देखकर विस्मय होता है। उनके साधु-साध्वियों में कुछ तो बहुत ही प्रतिभा. शाली पौर शामबुद्धि के हैं। लेकिन क्या मजाल कि वे कभी अनुशासन में बाहर हो । जब किसी र स्वार्थ के लिए लोग मिलते हैं तो उनके गुट बनते हैं और गुदमन्दी कदापि श्रेयस्कर नहीं होती। इसी प्रकार वाद का अर्थ है, पाखों पर ऐसा चश्मा पढ़ा लेना कि सब चीजें एक ही रय की दिखाई दें। कोई भी स्वाधीनचेवा पौर विकासशील व्यक्ति न गुटबन्दी के चक्कर में पड़ सकता है है पौरन वाद के। मनुष्य अपने व्यक्तित्व के दीक को लेकर भले ही व बितना ही छोटा क्यों न हो, अपने मार्ग को प्रकाशमान करता रहे, जीवन को अभंगामो बनाता रहे, यही उसके लिए अभीष्ट है। वास्तविक स्वतबला वा मानन्द वही ले सकता है, जो परिग्रह से मुक्त हो । परिग्रह की गणना पत्र महादतों में होती है। पाचायो अपरिग्रह के
SR No.010854
Book TitleAacharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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