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' संद्यायमाला.'
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सम्॥ ॥॥समकितगुणंगणे कस्यो, साध्य अयोगी नाव ॥ स उपादानता तेहनो, गुप्तिरूप स्थिरजाव ॥ स॥ व ॥ए॥ गुप्ति रुचि गुप्ते रम्या, कारण समिति प्रपंच ॥ स ॥ करता स्थिरता हिता, ग्रहे त त्व गुणसंच ।। स॥ व०॥१०॥अपवादे उत्सर्गनी, दृष्टि न चूके जेह ॥ स॥प्रणमे नित्यप्रत्ये नावद्यु, देवचंद मुनि तेह ॥ स ॥ व ॥ ११ ॥
॥ अथाष्टम कायगुप्ति सद्याय प्रारंजः ॥ ॥ फुलना चोसर प्रजुजीने शिर चढे ॥ ए देशी ॥ गुप्ति संजारो रे त्री। जी मुनिवरु, जेहथी परम आनंदो जी ॥ मोह टले घन घाति परगले, प्रगटे ज्ञान अमंदो जी ॥ गु०॥ १॥ करीय शुभ अशुन जवजे जे , | तिण तजि तन व्यापारो जी॥ चंचलनाव ते आश्रव मूल डे, जीव अच ल अविकारो जी ॥ गुण ॥२॥ इंघिय विषय सकलनुं धार ए, बंघहेतु 'दृढ एहो जी। अनिनव कर्म ग्रहे तनुयोगथी; तिण थिर करीयें देहो जी॥ गु०॥३॥ यातमवीर्य फुरे परसंग जे, ते कहीयें तनुयोगो जी॥ चेतन सत्ता रे परम अयोगी ने, निर्मल स्थिर उपयोगो जी। गु०॥४॥ जावत कंपन तावत बंध , नांख्युं जगवश् अंगे जीते माटे ध्रुव तत्वर सें रमें, मादण ध्यान प्रसंगे जी ॥ गुण ॥५॥ वीर्य सहायी रे आतम ध मनो, अचल सहज अप्रयासो जी॥ ते परन्नाव सहाया किम करे, मुनि वर गुण आवासो जी ॥ गुण ॥ ६ ॥ खंति मुक्ति युक्ति अकिंचनी, शौच ब्रह्म धर धीरो जी॥ विषय परिसह सैन्य विदारवा, वीर परम शौंमीरो जी॥ गु॥७॥ कर्म पमल दलक्ष्य करवा रसी, आतमझछि समृको जी॥ देवचंद जिन आणा पालतां, वंडूं गुरु गुणवृको जी॥ गु॥७॥
॥अथ नवम साधुखरूपवर्णन सद्याय प्रारंजः॥ . ॥रसीयानी देशी॥ धर्म धुरंधर मुनिवर सुलही, नाण चरण संपन्न ॥ सुगुण नर ॥ इंघिय लोग तजी निज सुख नजी, नवचारक उदविन्न ॥ सु॥१॥ अव्य नाव साची सरधा धरी, परिहरी शंका दि दोष ॥ सु॥ कारण कारज साधन आदरी, धरी ध्यान संतोष ॥ सु॥ध०॥ २ ॥ गुणपर्यायें वस्तु पारिखतां, शीख उजय नंमार ॥ सु॥ परिणति शक्ति खरूपमें परिणमी, करता तसु व्यवहार ॥ सु॥ ध॥३॥ लोक सन्नवितिगिठा वारता, करता संयमवृद्धि ॥सु ॥
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