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श्री जनरख त्र्पने जनपालनुं चोढाली युं. ( ३५१ )
|| जरतारे बोडी नाहली, कांइ लोल कल्लोल पोकारे रे ॥नाव समुद्रमां बूडतां, रोवंतां वि पाडे रे ॥ धन० ॥ १० ॥ हाहाकार दुई घणों, तिहां पाटीयुं हाथ आय रे ॥ बीजा तो असकी पड्या, वे जाइ तरंता जाय रे ॥ धन० ॥ ११ ॥ रत्नद्वीपे ते यवीया, तिहां मन मान्यां फल खाय रे ॥ नालियर फोडि तेल काढीने ते, चोपडी बेठा बाय रे ॥ धन० ॥ १२ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ रयणदेवी ति अवसरे, वसती द्वीप मकार ॥ पाप करी हर्षित हु इ, रौद्र दौड़ जरतार ॥ १ ॥ ते नवं नव सुख जोगवे, रही विषय रस लाग ॥ मलीया अति रलीयामणा, चारे एकण बाग ॥ २ ॥ वे जाइ चिं त्या करे, पूरव वातविचार ॥ श्रार्त्तध्यान करतां थकां देवि वि ति वार ॥ ३ ॥ खबे तेहना हाथमां, कीधुं रूप कुरूप | नयणां दोय फा टी थकी, मूंगी दिसे विरूप ॥ ४ ॥ अहो मुकुंदजीना दीकरा, वचन क ह्यां निर्धार || तमें मुशुं सुख जोगवो, नहिं तो करुं निहार ॥ ५ ॥ मा न्युं वचन ए वे जणें, लइ चाली आवास ॥ अशुन पुफल सहु काढीने, जोगवो जोग विलास ॥ ६ ॥ नित्य अमृत सुख जोगवे, करि करि नवला वेश ॥ काल केतो जब निकल्यो, आव्यो इंद्र आदेश ॥ ७ ॥ ॥ ढाल बीजी ॥
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॥ इण अवसर तिहां कुंबनुं रे ॥ ए देशी ॥ हाथ जोडीने एम कहे | रे, सांजल मोरी वात रे ॥ वालम मोरा ॥ इंडे हुकम फ़रमा वियो रे, समुद्र वलोवा जाय रे ॥ वालम मोरा ॥ मुऊ विनती अवधारजो रे ला . ल ॥ १ ॥ जो तुम आरति उपजे रे, तो जाजो पूरव बाग रे ॥ वा ॥ दोय रीतिनां फल खायजो रे, करजो मन मान्या रंग रे ॥ वा० ॥ मुक विन || २ || एक फल खातां थकां रे, जागशे विषयविकार रे ॥ वा० ॥ काम दीपावण एह बे रे, मनेच्छा पूरण हार रे ॥ वा० ॥ मु० ॥ ३ ॥ ator घणी ए बागमां रे, सरोवर घणां तिणमांजरे ॥ वा ॥ ढेल कोल कोयल लवेरे, जेहनी मीठी ढें वाच रे || वा० ॥ मु० || ४ || तिहां की यारति ऊपजे रे, तो बाग उत्तरमां जाय रे || वा० ॥ शरद हिमनां सुख जोगवो रे, दक्षिण बागमें जाय रे, ॥ वा० ॥ मु० ॥ ५ ॥ ति में सर्प बे मोटको रे, चंमरौड कालिनाग रे रखे पीडा
|| वा० ॥
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