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T ( ३१०)
-सद्यायमाला..
वि ॥ ८ ॥ कहा करे ज्ञानी जलो, कहा करे ज्ञान || मोहरायके राजमें, कहेनुं न रधुं मान ॥ नवि० ॥ ए ॥ सबहुं करमसें जिन कयुं, मोहकर्म दुःखदंद || दोस्यो भरत हनन जणी, कीनो मारण संच ज० ॥ १० ॥ दीर्घराय चूलणी मली, कीनो मारण संच ॥ ब्रह्मदत्त च की प्रणी, देखो मोह प्रपंच ॥ नवि० ॥ ११ ॥ कृष्ण कलेवर लइ जम्यो, राम मासी विदीत ॥ वन गिरि कुंजन कुंजमें, ए ए मोह कुरीत ॥ न वि० ॥ १२ ॥ ग़र्जवासमादे हट्यो, ले तब एसो नीम ॥ माता पिता जब जीवते, व्रत लेवानी सीम ॥ जवि० ॥ १३ ॥ नमो नमो या मोदकूं, मोह सबल क्रम राय ॥ बिनमांहे महावीरके, दीनो जेहने घाय ॥ जवि० ॥ ॥ १४ ॥ मोह कर्म वत्स तुम तजो, जेम होये अशरीर ॥ इणविध बहु परें शीखवी, गौतमने माहावीर ॥ जवि० ॥ १५ ॥ दीक्षा बीधी ,जावशुं, बोडी सब घरवास || वरस चोवीश घरें रह्यो, सो फरि घाई कुमार ॥ जवि ॥ १६ ॥ किं देखके, मन्न करो मत कोय ॥ सिंहगुफावासी मुनि, चूको वेश्या जोय ॥ जवि० ॥ १७ ॥ पुत्र मरण मन्नक समे, सिद्धजय गणधार ॥ दुःख घरी निज चित्तमें, दुर्जय मोह विकार | वि० ॥ १८ ॥ वात सकल या मोहकी, मुखे कह । नवि जा य ॥ प्रश्नचंद्र शुध्यानथें, देव कुंडुनि गवाय ॥ नवि० ॥ १५ ॥ रुद्धि ढी व्रत याद, मन वैराग्य संजाल ॥ सो मोहे बलि जोलव्यो, वीर जमाई जमाल' || नवि० ॥ २० ॥ यब तो मायामें पड्यो, जाणत नहीं || लगार || पडतावेगो प्राणीयो, वीबडवानी वार ॥ जवि ॥ २१ ॥ खरि इंतं किंहां चक्रवर्त्ति किहां, जानें बल असमान ॥ एसेंजी स्थिर नां रहे, तुं तो केदे ज्ञान ॥ जवि० ॥ ३२ ॥ स्वारथको सबको सगो, खारथको सब नेट् ॥ जो स्वारथ पूगे नाई, जिनमें देखाडे बेद ॥ जवि० ॥ २३ ॥ जैसा चंचल पवन है, तैसी मनकी दोर || गुरुके वयण - विचारके, ले-रा खो एक ठगेर ॥ नदि० ॥ २४ ॥ पांचे इंद्रिय वश करो, वारो विषय कषाय ॥ प्रातस जंपो आपणो, इस विश्व बहु समजाय ॥ नवि० ॥ २५ ॥ ए हि तशीख विचार के, ग्रहो सकल नर नार ॥ लावण्यकीर्त्ति संपदा, ज्युं पामो जंव पार ॥ नवि ॥ २६ ॥ इति आत्मशिक्षा समाप्ता ॥
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