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आवडष्टिनी सद्याय.
(१४)
वनी, चारो तेह चरावे रे || वी० ॥ ४ ॥ दृष्टि थिरादिक चारमां, मुगति प्र या न जाजे रे ॥ स्यणि सयन ज़ेम श्रमदरे, सुरनर सुख तेम बाजे रे ॥ वी० ॥ ५ ॥ एड प्रसंगी में कहुं, प्रथमदृष्टि हवे कहिये रे ॥ जिहां मित्रा तिहां बोधजे, ते तृरा श्रगनि सो लहियें रे ॥ वी० ॥ ६ ॥ व्रतपरा यहां संपजे, खेद नही शुभकाजें रे || द्वेष नहीं वली अवरसुं, एद गु ए अंग विराजे रे || वी० || ७ || योगनां बीज इहां ग्रहे, जिनवर शुद्ध प्र लामो रे | नावाचारज सेवना, जवलग सुठामो रे ॥ वी० ॥ ८ ॥ इय श्रनिग्रह पालवा, उपप्रमुखने दाने रे । आदर श्रागम यासरी, लिख नादिक बहु मानें रे ॥ वी० ॥ ए॥ लेखन पूजन ग्रापवुं श्रुतवाचना नद ग्राही रे || जावविस्तार सद्यायथी, चिंतन जावन चाहो रे || वी० ॥ १ ॥ बीजकथा जंली सांजली, रोमांचित हुइ देह रे || एह प्रवंचक योगथी, लहियें धरमसनेह रे || वी० ॥ ११ ॥ सदगुरु योगें वंदनक्रिया, तेहथी फल होये जेहो रे || योग क्रिया फल नेदशी, त्रिविध अचक एहो रे || वी० ॥ १२ ॥ चाहे चकोर ते चंदने, मधुकर मालती जोगी रे | तेम नवि सहज गुणें होये, उत्तम निमित्त संयोगी रे ॥ वी || १३ || एह प्रवंचकयो गते, प्रगटे चरमावर्त्ते रे ॥ साधुनें सिध्दशासमो, बीजनुं चित्त प्रवर्त्ते रे ॥ alo || १४ || करण पूर्वना निकटथी, जे पहेलुं गुणगणुं रे ॥ मुख्यपणे ते इहां होये, सुयशविलासनुं टाएं रे ॥ वी० ॥ १५ ॥
॥ ढाल बीजी ॥ मन मोहन मेरे ॥ ए देशी ॥
॥ दर्शन तारादृष्टिमां, मनमोहन मेरे || गोमय अर्गानि समान ॥ म ॥ शौच संतोषने तप लो || मं० ॥ सद्याय ईश्वरध्यान ॥ ० ॥ १ ॥ नि यमपंच इहां संपजे || म० ॥ नही किरिया उद्वेग || म० ॥ जिज्ञासा गुतत्त्वनी ॥ म० ॥ पण नही निजहउटेग || म० ॥ २ ॥ ए दृष्टें होय वरततां ॥ ० ॥ योगकथा बहुप्रेम || म० अनुचित तेह न श्राचरे ॥ म० ॥ वाल्यो वले जेम हेम ॥ म० ॥ ३ ॥ विनयं अधिक गुणीनो करे ॥ म० ॥ देखे - निजगुण हाए | म ॥ त्रास घरे जवनयथकी ॥ म० ॥ ज व माने खखाग ॥ म ॥ ४ ॥ शास्त्र घणां मति घोडली ॥ म० ॥ शि ष्ट कहे ते प्रमाण - ॥ म ॥ सुयश लहे ए जावथी ॥ ० ॥ न करे जूठ
॥
डफाण ॥ म० ॥ ५ ॥
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