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दशवैकालिकनी सद्याय.
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परसंग रे, नव वाड धरो वलि चंग रे ॥ १३ ॥ रसलोलुप थइ मत पोषो रे, निजकाय तप करीनें शोषो रे । जाणो थिर पुजलपिंग रे, व्रत पाल जो पंच खंग रे ||१४|| कहियं दशवैकालिके एम रे, अध्ययने आठ ते मरे ॥ गुरु लाज विजयथी जाणी रे, बुध वृद्धि विजय मन याणी रे ॥१५ ॥ ॥ अथ नवमाध्ययन सद्याय प्रारंभः ॥
॥ शेत्रुंजे जइयें लालन, शेभुंजे जश्यें ॥ ए देशी ॥ विनय करेजो चे ला, विनय, करेजो ॥ श्रीगुरु आणा शीश धरेजो ॥ चेला० ॥शी० ॥ श्र कणी ॥ क्रोधी मानी ने परमादी, विनय न. शीखे वली विषवादी || || व॥१॥ विनयरहित श्राशातना करतां, बहु जव जटके दुर्गति फरतां ॥ चे० ॥ णानि सर्प विष जिम नवि मारे, गुरु ध्यासायण तेथी अधिक प्रकारें ॥ ० ॥ ० ॥ २ ॥ अविनयें डूषियो बहुल संसारी, अविनयी मुक्तिनो नहिं अधिकारी ॥ चे० ॥ न० ॥ कोह्या काननी कूतरी जेम, हां की का नियम ॥ चे ॥ ० ॥ ३ ॥ विनय श्रुत तप वली आ चार, कहीयें समाधिनां ठाम ए चार ॥ चे० ॥ वा० ॥ वली चार चार नेद एकेक, समजो गुरुमुखथी सविवेक ॥ चे ॥ थी० ॥ ४ ॥ ते चारेमां विनय वे पहेलो, धर्म विनय विष नांखे ते घेलो ॥ चे० ॥ ज० ॥ मूल थकी जिम शाखा कहियें, धर्मक्रिया तिम विनयथी लहिये ॥ चे० ॥ वि० ||२|| गुरु मान विनयथी लहे सो सार, ज्ञान क्रिया, तप जे आचार ॥ ० ॥ ० ॥ गरथ पखें जिम न होये दाट, विष गुरुविनय तेम धर्मनी वाट || चे० ||६०||६|| गुरु नान्हो गुरु महोटो कहियें, राजा परें तल या -या वहियें || || आ || अल्पश्रुत पण बहुश्रुत जाणो, शास्त्र सिद्धांते तेह मनाणो || ० || ते० ॥ १ ॥ जेम शशी ग्रहगणें विराजे, मुनि परिवारमां | तेम गुरु गाजे ॥ चे ॥ ते ॥ गुरुथी अलगा मत रहो जाइ, गुरु सेव्ये लहेशो गौरवाइ ॥ चे० ॥ शो० ॥ ८ ॥ गुरुविनये गीतारथ थाशो, वंबित सुखखमी कमाशो ॥ चे० ॥ ल०|| शांत दांत विनयी लजालु, तप जप क्रियावंत दयालु ॥ चेा०|||| गुरुकुलवासी वसतो शिष्य, पूजनी य होये विसवा वीश || चे० ॥ वि० ॥ दशवैकालिक नवमे अध्ययनें, केवली वयणें ॥ चे० ॥ के॥ इषिपरें लाज विजय गुरु सेवी, वृद्धिविजय स्थिर लखमी लहेवी ॥ चे० ॥ ल० ॥ १७ ॥ इति ॥