________________
(990)
सद्यायमाला.
॥ ज० ॥४२॥ दवनुं दान तलावनुं रे, तह सर हनुं शोष ॥ क्रूर कर्मका रीत रे, पोष असती पोष रे ॥ ज० ॥ ४६ ॥ चज विह अनरथदंग बेरे, प्रथम धारतिरूप ध्यानं ॥ बीजो पाप उपदेशना रे, श्रीजो हिंस्रमदान रे ॥ ज० ॥ ४५ ॥ दाक्षिण विष अधिकरण ये रे, तुरिय प्रमादाचरण ॥ ए थी विरति डुदा त्रिकरणे रे, श्रवमे व्रत आचरणें रे ॥ ज० ॥ ४५ ॥ ॥ ढाल पांचमी ॥ जोलीडा इंसां रे विषय न राचीयें ॥ ए देशी ॥ था रति रौद्र निवारी जेणे तज्युं, डुगविध व विहें सावध ॥ घटिका डुग लगें समता तस लवसुं, सामायिक व्रत सद्य ॥ ४६ ॥ परिषत जन सुबो सकुरु देशना ॥ ए आंकण। ॥ जिम लहो मग्ग उमग्ग ॥ शुद्ध प्ररूपक डुर्लज कलियुगें, तस चरणें जे लग्ग ! तस पासें व्रत मग्ग ॥ ४७ ॥ || परिणत || बँके दिशि परिमाण प्रत्युं तेनुं, जे संक्षेप सरूप ॥ देशाव काशिकात दशमं श्रहवा, सवि व्रत संक्षेप रूप ॥ ४८ ॥ परिषत जन० ॥ श्रन्य चार डुविध त्रिविधे तजो, मुहूर्त्तादि प्रमाण ॥ प्रतिदिन चउद नियम विहाणे धरो, संवरो सांक सुजाण ॥ परि० ॥ ४७ ॥ याव श्यक पर्व दिवसे श्रादरो, व्रत पोषधं उपवास ॥ श्राहार तनुसत्कार ब्रह्म तथा, सावधनो त्याग खास ॥ प० ॥ ५० ॥ सो च विहग विद ति विहें करो, दिन होर तिसें सरचि ॥ देशथी सर्वथी आदार पोषध धरो, सर्वथी तिगसें सचित्त ||१०||२१|| नवम एकादश डुग व्रत श्राराधो, परिणतिथि संविभाग ॥ सकुरु साधुनें पडिलाजी, जमे श्रावक महा जाग ॥ प० ॥ ५२ ॥ गुरुविरहें दिशि अवलोकन करे, समरी जेणें प्रति बुद्ध || पडिलान्यो विणं न जमे त्रिकरणें, पाले ए व्रत शुद्ध ॥ प० ॥५३॥ एह विवक्षित जंगें व्रत कह्यां, स्थूलनयें धरो मन्न ॥ जगवई छांगें रे विव री जांखियां, नामायें गुणवन्न ॥ प० ॥५४॥ इम श्रावकत्रत आदरो वि जना, पालो तजी अतिचार ॥ आणंदादिक परें सद्गति लहो, पंचम गति . ए. णि सार|| ||२२|| मोक्षमारग एहवो तो वीर जिने, कह्यो करीयः संसार ॥ शांति विजय बुध विनय विनयशुं, मान कड़े हितकार ॥ पणा५६ ॥ इति ॥
॥ श्रघ श्री देतवी जयंजीकृत अढार नातरांनी साय प्रारंभः ॥ ॥ पेहेलांने समरुं पास पंचासरो रे, समरी सरसती मात्र || निज गुरु केरारें चरण नमी करी रे, रचशुं रंगें सजाय ॥ १ ॥ नवि तुमे जोजो रे