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प्रसन्नचंराजर्षिनी तथा जीवोपदेशनी सद्याय. (२१)
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| जाउँ । महारे मंदिर महोटा श्रावे, प्रजु विना नवि राचुं ॥४॥ बृहस्पति वारें धन संचयजे, ते अनरथनुं मूल ।। मूआ पड़ी साथें नहिं आवे, पली रहेशे धूल ॥५।। शुक्रे सुकृत करणी कीजे, संसार मांहे सार ॥ तेणे त्रिजु वन तेहने माने, एवी दीन दयाल ॥६॥ शनैश्चर वारे धन सांचीयने, कारज पूरां थाय ॥प्रजुजीनी जो थोजण होय तो, वेहेलो मुक्त जाय ॥७॥
॥अथ प्रसन्नचंजराजर्षिनी सद्याय ॥ . ॥मारगमा मुनिवर मल्यो । झषि ए रूडो॥ साधतो मुक्तिनो पंथ ॥ शषीश्वर ए रूडो । उत्कृष्टी रयणी रहे ॥॥ सूधो साधु निग्रंथ ॥ ॥१॥ एक पगे उनो रह्यो ।शा सूरज सामी दृष्टि ॥।। बोलाव्यो बो ले नहीं ॥२॥ध्यान धरे परमेष्ठी ॥ ॥२॥ श्रेणिक कहे खामी सुणो॥ ॥ जो मरे तो जाये केथ ॥ ॐ ॥ खामी कहे जाये सातमी ॥ ॥ तीव्र वेदन ले तेथ ॥ २० ॥३॥ वाग्यां देवनां इंसुनि ॥ ॥ उपन्यु केवल ज्ञान ॥२०॥श्रेणिकने समजावियो ॥ ॥ अशुल अने शुजध्यान ॥ ॥४॥ प्रसन्नचं सरखी मले ॥ ॥ तो हुँ तरूं | ततकाल ॥ ० ॥ उषम कालें दोहिलो ॥ ॥ समयसुंदर मनवाल ॥ ॥ ५॥ इति प्रसन्नचंजराजर्षिनी सद्याय ॥
॥ अथ जीवोपदेशनी सद्याय॥ ॥ सेवो सह गुरु नविजना, नामें नवनिधि थायो रे ॥ पंच महावत पा सतां, समताशुं चित्त लायो रे ॥ से॥१॥हित चिंत सवि जीवशु, षट् काय दोष विचार रे ॥ त्रिविध त्रिविध करि वोसिरे, ममता मोह निवार रे। से॥२॥ पृथिवी अप तेल वायुनु, एनुं सत्तज नामोरे॥ रूप्य सवे नूत जाणी, नूत रहे तिण गमो रे॥से ॥३॥ बि ति चरिंजिय प्रा णीया, नांख्या सिरिअरिहंतो रे ।। सुर नर तिरि वली नारकी, जीव ना म कहंतो रे ॥ से ॥॥ षट्काय हिंसाथकी घएं, हींजियनां ले पापो रे॥
अनंत असंख्यात जाणीयें, बोले ए जिनवर आपो रे ॥ से॥५॥हीं | जियने हणवाथकी, चरिंजिय पाप विशेषो रे ॥ सहस्स गुणुं अधिकुंस ही, जिणवर ए उपदेशो रे । से० ॥ ६॥ चरिंजियथी जाणजो, परव संख्या सारी रे ।। शत वली पंचेंजिय यश, नाले पर उपकारी रे ।। से॥ ॥पीत वर्ण पृथ्वीनणी, पाणी रातेलं होय रे॥धवल वर्ण वलि तेमनी,
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