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कुगुरुनी सद्याय.
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नारी बे एढ्वी रे ॥ नारी जूंमी ॥१॥ ऊटकी रे मटकी बेद दे, एहवी जा णी मूलो रे ॥ विकसित वदन तुम देखीने, मत जाणो, मुख फूलो रे ॥ ना० ॥ २ ॥ इत्यादिक अवगुण घणा, जाणी धरजे शीलो रे ॥ प्राणीयडा सुण शिलथी, सहियें ष्य विचल लीलो रे ॥ नारी ॥ ३ ॥ एक मूरख माखी परें, मधुयें जिम वींटाय रे ॥ जमर सरीखा जाए ते, रस लेई डूर घाय रे ॥ नारी ॥ ४ ॥ शेठ सुदर्शन सारिखा, जंबू वयर कुमारो रे ॥ नारीने वश नवि पड्या, ते महोटा जूकारोरे ॥ नारी० ॥ ५ ॥ बलिहारी हुं तेहनी, चरण शरण मुऊ तेहनुं रे ॥ पातक सर्व पखाली यें, ध्यान धरी वली एहनुं रे ॥ नारी ॥ ६ ॥ कामिनी फुल किंपाक शी, ज्ञान सागर एम लहियें रे ॥ तन मन चपल त्रिया तणां, जाणी अलगा रहियें रे ॥ नारी० ॥ ७ ॥ इति शियल विषे शिखामण सचाय ॥
॥ अथ कुगुरुनी सद्याय प्रारंभः ॥
॥ बेडो नांजी ॥ देश ॥ शुद्ध संवेगी किरिया धारी, पण कुटिलाइ नमू के ॥ वाह्य प्रकारे किरिया पाले, अभ्यंतरथी चूके ॥१॥ कपटी कढ़िया एह जिदें, पृष्टनुं नाम न लीजें ॥ ए आंकणी ॥ कालो कपडां खंने धावली, काख देखाडी बोले ॥ तरुणी सुंदर देखी विशेषे, पुस्तक वांचवा बोले | क ॥ २ ॥ पेंका देखी काढे पडघो, पडघा मान करावे ॥ खाजां वहोरे खांत क रीने, पूरीने वो सिरावे ॥ कण् ॥ ३ ॥ ज्ञानमिषें उपदेश देने, सूक्ष्म परि ग्रह राखे ॥ ए कपटीनुं नाम न लीजें, इम उत्सूत्र जे जांखे ॥ क० ॥ ४ ॥ ताल कूटवा सायें दीं, श्राविका ढे दश वार ॥ यात्राने मिष एणी परें विचरे, दूर रह्या आचार ॥ क० ॥ ५ ॥ पाशेर घीथी करे पारणुं, व ली खावे शेर || तोही ताला इषि परें बोले, उपवासें आवे फेर ॥ ॥ क० ॥ ६ ॥ वगलानी परें पगलां मांगे, आडुं मोढुं जोवे | महिला साधें बोले मीतुं, साधु वेष वगोवे ॥ ६० ॥ ७ ॥ श्रचाएंगें वस्त्रनो जांख्यो, श्वेतने मानोपेतें ॥ ते तो मारग दूरें मूक्यो, कपडां रंगें देतें ॥ क० ॥ ८ ॥ बाजीगर जेम बाजी खेले, धीवरे मांगी जाल ॥ ते संवेगी सुधा मत जाणो, ए सहु आल जंजाल ॥ क ॥ ए ॥ ऊंचं घर अगोचर होवे, मासकल्प तिढ़ां कीजें ॥ सुखशातायें पडिलेड़ चाले, साधु जन्म फल लीजें ॥ क० ॥ १० ॥ सत जगावे महिला