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संद्यायमाला.
मंत्र फलें जग जसवधे, देव करे सानि ॥ ब्रह्मचर्य धरे जे नरा, ते पामे नव नि ॥ पाप ॥ ॥ शेठ सुदर्शनने टली, शूली सिंहासन होय ॥ गुण गाये गगर्ने रे देवता, महिमा शीलर्नु जोय ॥ पापा ॥१७॥ मूल चारित्रनु ए नलु, समकित वृद्धि निदान ॥ शील सलिल घरे जिके, तस हुये सुजस वखाण ॥ पाप ॥ ११ ॥ इति चतुर्थ अब्रह्मचर्य पापस्थानक
॥अथ पंचम परिग्रह पापस्थानक सद्याय प्रारंतः॥ ॥ सुमति सदा दिलमां घरो॥ ए देशी । परिग्रह ममता परिहरो, परिग्रह दोषर्नु मूल ॥ सखणे ॥ परिग्रह जेह घरे घणो, तस तप जप प्रतिकूल ॥स ॥१॥ पाए आंकणी ॥ नवि पलटे मूल राशिथी, मार्मी कदिय न होय ॥ स॥ परिग्रह ग्रह ने अनिनवो, सहुने दीये कुख सोय ॥ सा प ॥परिग्रह मद गरुअत्तणे, नव मांहि पडे जंत ॥॥ स॥ यान पात्र जिम सायरें ॥ नाराक्रांत अत्यंत ॥ स ॥ १०॥३॥ झान ध्यान हय गय वरे, तप जप श्रुत परतंत ॥ स०॥ गेडे सम प्रनुता लहे, मुनि पण परिग्रहवंत ॥ स ॥५०॥॥परिग्रह गृहवशे लिंगिया, लेश कुमति रज सीस॥ साजिम तिम जग लवता फिरे, उनमत्त हु निश दील ॥ सप० ॥ ५॥ तृपतो न जीव परिग्रहें, इंधणथी जिम आग ।। स ॥ तृमा दाह ते उपशमे, जलसम ज्ञान वैराग ॥ स ॥ पण ॥६॥ तृपतो सगरसुते नही, गोधनधी कुचि कर्ण ॥ स॥ तिलकोठ वली धानणी, कनकें नंद सकर्ण ॥ स ॥ ५० ॥ ७ ॥ असंतुष्ट परिग्रहन्नख्या, सुखीआन इंद नरिंद।। स ॥ सुखी एक अपरिग्रही, साधु सुजस समकंद ॥ स ॥ १० ॥७॥इति पंचम पापस्थानक ।
॥अथ षष्ठ कोषपापस्थानक सचाय प्रारंन्नः॥ __॥षन्ननो वंश रयणायरू॥ ए देशी ॥ क्रोध ते बोध निरोध , क्रोघ ते संयम घाति रे ॥ क्रोध ते नरक, बार[, क्रोध ऽरित पक्षपाति रे ॥१॥ पापस्थानक बहुं परिहो ॥ मन धरि नत्तम खंति रे ॥ क्रोध नुयं गनी जांगुली, एह कही जयवंती रे ॥पा॥ए आंकणी ॥ ॥ पूरब कोडि चरण गुणे, नाव्यो ने आतम जेणरे ॥ क्रोध विवश हुता दोय घडी, दारे सवि फल तेण रे ॥पा॥३॥ वाले आश्रम थापगो, नजना अन्यने दाहे रे॥क्रोध कशानुसमान ने, दाले प्रशम प्रवाह रे ॥ पा॥
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