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रहनेमीजीनी.सद्याय, १३५). कृत कारज कीजे जी ॥ राज कहे उपदेश बत्रीसी; सदगुरु शीख सुणी || जे॥श्रा ॥३॥इति श्री उपदेश बत्रीसीनी सद्याय संपूर्ण ॥
॥अथ श्रीवीरविजयजीकृत रहनेमीजीनी सद्याय प्रारंजः ॥ -- ॥ वाहावाह्या उत्तरदिशिना वाय जोए देशी ॥ रहनेमि अंबर विण राजूल देखि जो, मदनोदय मोह्या मुनि चित्त गवेषि जो, कहे सुंदरी सुं दर मेला संसारमा जो ॥१॥ संसार मेला आवे शे काज जो, चीरधरी क हे राजुख तुमे मुनि राजजो, आज किस्युं संजारो मेला वीसस्था जो॥२॥ वीसरे नही रागीने पूरव प्रीत जो, प्रीत करी रहे पूर.मुरखरीत जो, चतुरशुं चित्त मेलावो चतुरनें सांजरे जो ॥३॥सांगरे पण अमशुं तुम श्यो मेलाप जो, दीयर नोजाइपणानी अगमां बाप जो, तेमां श्यो चित्त मेलो फोगट रागनो जो ॥४॥ फोकट रागे रोतां तुम्हे घरमांहि जो, त जि तुमने मुज जाईगया वनमांहि जो, अम्हे तुम्ह घरे.नित वात वीशामे आवता जो ॥५॥वता तो हुँ देती आदरमान जो, प्रीतम लघु बंधव मुज नाश्समान जो, कंतवियोगें तुमशुं वात विसामती जो ॥६॥ वीसामा वनिताने वसन केरा जो, अण परणी कन्याने कंत घणेरा जो, ए क पखो जे राग ते धरवो नवि घटे जो ॥ ७॥ नवि धरे सतीयो जे नाम धरावे जो, वीजो वर वरवा श्वा नवि जावे जो, न फरे पंचनी साखे जे तिलक धस्यो जो ॥ ना-तिलक धरे ते तो सामान्य उराय जो, मंगल वर ते कर मेलापक थाय जो, माय पनी वोलावे कन्या सासरे जोए॥सा सरिये कुंवारी जमवा जाय जो, वस्तु सामान्य विशेषे लश् समवाय जो, करमेलावा पेलां मनमेला करे जो ॥१०॥ मेला करवा अमें तुम घेर श्रावंता जो, नूषण चीवर मेवाफाल लावंता जो, तुमे लेतां अमने थर आश्या मोटकी जो ॥११॥ मोटी आश्या शी थर तुम दिलमांहि जो, देवर जाणी हुं लेती उछांहि जो, ससरानुं घर सहि न धरी शंका अमे नो॥ १५ ॥ अमे जाएयु पतिविण. राजुल उसीआली ज़ो, एहने परणी सुखजर प्रीतडी पाली जो, दंपती दीक्षा बेशुं जोवनमां नही जो ॥१३॥ नही उसीयाली हुँ जगमां कहेवाणी जो, त्रय जगतनाराजानी हुं राणी जो, नूतल सरगे गवाणी प्रजूचरणे रही जो ॥१४॥ रही चरणे तो सु ख.संसार उगाणी जो, चंपकवरणी तुज काया सोसाणी.जो, तप जप क
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