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________________ । गुरु वे बदलकर कमार नरमे आये। वहां उन्होंने देखा कि सिद्धसेन तो डोलीमें 40कर जाते हैं और बहुतमे लोग उन्हे घरे हुए है। यह देखकर गुरुने कहा कि "मैं आपकी ख्याति सुनकर यहाँ आया हूँ, अत: मेरा संशय आप दूर कर!" सिद्धसेनने कहा: "भले, खुशीसे पूछो।" वाद गुरुने विद्वानोको भी आ में डाल दे ऐसे ७.५ स्वरसे कहा कि ___ अणफुल्लो फुल्ल म तोडहु मन-आसमा म मोडहु । मणकुसुमेहि अचि निरजणु हिंऽह काई वणेण वणु ॥ ९२ ॥ मोचनपर भी सिद्धसेनको जब इस अपभ्रा पद्यका अर्थ समझमे न आया, त उन्होने बाडान्टेडा उत्तर दिया और कहा कि "तुम दूसरा कुछ पूछो।" ५२ गुमने कहा कि "मीपर पुन विचार करो और जवाब दो।" सिद्धसेनने अनादर ईम पचका असम्बद्ध और जैसा-तसा खुलासा किया। परन्तु जब वह खुला गुरुने मंजूर न किया, तब अन्तमे उन्होंने गुरुमे कहा कि आप ही इस पद्यका अ. कहैं। गुरुने 'सुनो और सावधान हो जाओ' ऐमा कहकर इस प्रकार इसका अ. किया : "जीवनरूपी छोटे कोमल फूलवाली मानवदेहके जीवनाशरूपी फूलो तु राजसत्कार ५५ तज्जन्य के प्रहारसे मत तोड। मनके यम-नियम बासमी ( उद्यानों) को भोग-विलासके द्वारा भग्न न कर उन्हें नेस्तनाबू न कर । मानक (मद्गुणत्मी) पुष्पोंक द्वारा निरजन देवकी पूजा कर। सनाती एक वनसे लाभसकारजन्य मोहरपी दूसरे वनमें क्यो भटकता है ? ___ भूले हुए लोगोको मागपर लानवाले यह और इसके से दूसरे कितने है ___गुरु. ५. अर्थान, मिसेनका मन सचे तहुआ और उन्होने सोचा कि में धनका अतिरिक्त दूसरे को ऐसी क्ति नहीं हो सकती। मचमुच ही ये स्वय में पमं ही है, ऐना विचार कर है। वह गुरुक परामें झुके और कहा कि "दोपव गने आपको अपना की है, अत. आप जमा कर।" यह सुनकर गुरुने पाहा । "गने से मन-मिना पूर्ण पान ५.या है । मन्द अग्निवालेको २५५ मोनो नानि यी तुरंही पनि नही ५५ मा, तो फिर दूसरे गर्व अल-काय जीवात नो बान ही क्या ? न मन्तापम सव्यानको पुष्ट पार मेरे पिया जाना । लम्भमन प्राप्त मानन देवीने अपहर 1ोपाल आयोकि जाज ने पचाने माल योग मी पाही है। मा ; f दिया है कि " प्रभो! यदि भत्त ननी प्राय I. 4f4-14 आयेगे रामान , -14 " गुग्ने यो प्रापि
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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