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____१२ सिद्धसेन दिवाकरके उपयोगाभेददिको समालोचना की है और इसीलिए सिद्धसेन दिवाकर जिनभद्रगणीकी अपेक्षा पूर्वतर है। ___इसके अतिरिक्त मल्लवादीके द्वादशारनयचर' के विनष्ट मूलके जो प्रतीक उसके विस्तृत टीकानन्यमे मिलते है, उनमे दिवाकरका तो सूचन है, किन्तु जिनभद्रगणीका नहीं। इसपरसे यही फलित होता है कि मालवादी जिनभद्रकी अपेक्षा पहले हुए है। तो फिर मल्लवादी जिनके अन्यपर टीका लिखे, वह तो उनसे भी पूर्वतर होने चाहिए।
इस प्रकार सिद्धसेनको विक्रमकी चौथी सदीकै अन्तम या पांचवी सदीके प्रारम्भ में, इस समय उपलब्ध साधनोको देखते हुए, मानना चाहिए।
परन्तु सिद्धसेन दिवाकरको विक्रमकी चौथी-पांचवी शताब्दीमे मानने के सामने दो मुख्य विरोवी मत है . एक है प्रो० जेकोबी और प्रो० वधका और दूसरा है प० जुगोलकिशोरजी का। दोनो विरोधी मतके लिए सामग्री सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतार' मेसे ली गयी है।
न्यायावतार ४ से ७ श्लोकोम प्रमाणोकी चर्चा आती है। इनमें से पढ़ें। लोकमे अभ्रान्त और प्ठे २लोकमें भ्रान्त पद आता है । प्रो० जेकीवी और उनके मतके उपजीवी प्रो० वद्य इन लोकोमे मानेवाले अभ्रान्त मोर भ्रान्त शब्दपर खास ध्यान खीचते हैं। उनका ऐसा मानना है कि प्रमाणको व्यायाम 'अभ्रान्त' शब्दका प्रथम प्रयोग करने वाला वौद्ध आचार्य धर्मकीति है। धर्मकीतिने 'प्रमाणसमुच्चय'के प्रथम परिच्छेदमे आनेवाली दिनाको प्रत्यक्षकी व्याख्या 'प्रत्यक्ष कल्पनापोढ नमिजात्याचसयुतम्" को अभ्रान्त पदसे अधिक शुद्ध किया है। इधर सिद्धसेन दिवाकर 'न्यायावतार' मे धर्मकीतिक अभ्रान्त शब्दका उपयोग करके
१. श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक अन्य में प्राचार्य मल्लवादीका नयचक्र' नामक लेख, पृ० २१०।।
२. 'समराइचकहो' प्रस्तावना पृ० ३ । ३. देखो 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० १२६- ३३ । ४. अनुमान तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् ॥५॥ ५. न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्चयात् ।
भ्रान्त प्रमाणमित्येतद विरुद्ध वचनं यतः ॥६॥ ६. डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लॉजिक' १० २७७ की टिप्पणी।
७. तत्र प्रत्यक्ष कल्पनापोटमभ्रान्तम् ।--न्यायविन्दु, १.४ ॥