________________
तृतीय काण्ड : गाथा-६३ केवल एक-एक नयाश्रित सूत्रमे सम्पूर्ण सूत्रत्वको मान्यतासे आनेचाले दोष ।
पाडेक्कनयपहा तुतं सुतहरसहसंतुळा । अविकोवियसामत्या जहागमविभत्तपडिवत्ती॥६१ ॥ सम्मइंसणमिणमो सयलसमत्तवणिज्जणिहोसं ।
अत्तुपकोसविणवा सलाहमाणा विणासति ॥ ६२ ॥ अर्थ एक-एक नयमाग५२ आश्रित सूत्रको पढकर जो सूत्रधर शब्दसे सन्तुष्ट हो जाते है वे विद्वानयोग्य सामर्थ विनाके रह जाते है। और इससे उनकी प्रतिपत्ति आगमके अनुसार ही विभक्त होती है, अर्थात् मात्र शब्दस्पर्शी होती है।
अपनी बडाई हॉकनेवाले वे आत्मोत्कर्षसे नष्ट होकर सम्पूर्ण धाम समानेवाले वक्तव्य कारण निर्दोप उस सम्यग्दर्शन अर्थात् अनेकान्तदृष्टिका नाश करते है।
विवेचन किसी भी एक वस्तुके बारेमे सभी दृष्टियोसे विचार किये बिना जो किसी एकाच दृष्टिको पकड लेते है और उस दृष्टि के समर्थक सूत्रको अभ्यास करके अपने आपको सूत्रधार मानकर उतनेसे ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, उनमे अनेकान्तदृष्टिके योग्य वित्तीका सामर्थ्य नही आता, और इसीलिए उनका ज्ञान मात्र शब्दपा० तक ही विशद होता है, उनमें स्वतन्त्र-प्रजाजन्य विशदता नही आती। फलत वे अल्पको वहुत मानकर फूल जाते है और अपनी डीग हांकते-हांकते अन्तमे अनेकान्तदृष्टिका नाश ही करते है। सस्त्रिप्ररूपणाके अधिकारी होने के लिए आवश्यक गुण
ण हु सासणभत्तीमत्तए सिद्धतजाणो होइ ।
ण विजाणो वि णियमापण्णवाणिच्छिोणाम ॥६३ ॥ શર્ય માત્ર મારામજી મતિ છોડું સિદ્ધાન્ત જ્ઞાતા નહી હોતા, तथा उसका ज्ञाता भी नियमसे प्ररूपणाके योग्य नहीं बनता।
विवेचन कोई केवल शास्त्रकी भक्तिसे प्रेरित होकर उसकी प्र') मेंसे अधिकार अपनेमे मानता है, तो कोई दूसरा थोडा-सा ज्ञान अधिकार अपने मे है ऐसा समझ लेता है। दोनो