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सन्मति-प्रकरण
गया? इसके उत्तरका विचार करते समय ग्रन्यकारके दो आराय हो ऐसा प्रतीत होता है। ईश्वरके कर्तत्वके प्रसगमे प्रायोगिक एव वससिककी चर्चा होनेसे जिस-जिस पदार्यके वारेमे ईश्वरके कर्तृत्व-विषयक किसीकी मान्यता हो, उस-उस पदार्थका ही उत्पाद-विना२। यहाँ प्रस्तुत है। इसीसे परमाणु या चेतन द्रव्यको यहाँ नही लिया गया, क्योकि कोई भी ईश्वर कारणवादी परमाणु या पेतन द्रव्यको जन्य मानता ही नहीं। अवयवीमात्रको ईश्वरजन्य माननेवाले वैशेषिक आदि है और आकाको ईश्वरजन्य मानने वाला औपनिषद दर्शन है। इसीलिए ऐसा सम्भव है कि मूर्त द्रव्यमेसे परमाणुको और अमूर्त द्रव्यमेस आत्माको छोडकर ही यहाँ चर्चा की गई हो। जो द्रव्य स्कन्वरूप है उन्हीको चर्चा यहाँ प्रस्तुत है। परमाणु तो स्कन्ध नही है, और यद्यपि आत्मा आकाशकी भांति प्रदेशीका अनादि स्कन्ध है, फिर भी उसके उत्पाद एव विनाशका ही विचार सातवी गाथामे आ जाता है। इसलिए उसे यहाँ नही लिया होगा। वह स्वयं ही अपनी अवस्थाका का होने से उसके पर्यायोका उत्पाद-विनाश उसके अपने प्रयत्नकी अपेक्षासे प्रायोगिक ही कहा जा सकता है। जीव किसी भी दशमि अवस्थित क्यो न हो, उसके पर्याय उसके अपने ही वीर्य से जन्य होने के कारण प्रायोगिक ही है, फिर चाहे वह वीर्य अभिसन्धिज (इच्छापूर्वक) वीर्य हो या अनभिसन्धि (इच्छारहित) वीर्य । उत्पत्ति, नाश एव स्थितिक कालभेद आदिको चर्चा
तिििव उपायाई अभिण्णकालाय भिण्णकालाय । अत्यंतरं अगत्यंतरं च दवियाहि णायला ॥३५॥ जो आउंचणकालो सोचव पसारियरराविण जुत्तो। तेसि पुण पवित्ती-विराम कालंतरं त्यि ॥३६॥ उपज्जमाणकालं उप्पण्णं ति दिगो विगच्छत ।
दवियं पण्णवतो तिकालविसर्थ विससे३ ॥ ३७॥ अर्थ उत्पाद आदि तीनोका काल अभिन्न भी है और भिन्न भी / है, तथा उन्हें द्रव्यसे भिन्न एव अभिन्न जानना चाहिए।
जो आकुचन-काल है वही प्रसरणका भी युपा नही है, और उस आकुचन एव प्रसरण उत्पाद-विनाशमे कालका अतर अर्थात् भेद नही है।
१ देखो तत्त्वार्यभाष्यवृत्ति पृ ३८९-९० ।