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सम्मति-प्रकरण नय भी विशुद्ध जातीय नही है। विवक्षाको लेकर ही दोनोका भेद है।
विवेचन द्रव्यास्तिक एव पर्यायास्तिक रूपमे नयके दो भेद करनेसे तथा उनका सामान्य एवं विशेषके रूपमे विषय-विवेक करनेसे सम्भवत ऐसा प्रतीत हो, सकता है कि इन दोनो नयोका तया इनके विषयोका तनिक भी सम्बन्ध नहीं है। इस भ्रान्तिको दूर करके वस्तुस्थिति यहाँ स्पष्ट की गयी है। वस्तुत कोई सामान्य विशेषरहित और कोई विशेष सामान्यरहित होता ही नहीं। एक ही वस्तु अमुक अपेक्षासे सामान्यरूप, तो दूसरी अपेक्षासे विशेषरूप होती है । इसीसे द्रव्यास्तिक नयका विषय पर्यायास्तिक नयके विषयस्पर्शसे और पर्यायास्तिक नयका विषय द्रव्यास्तिक नयके विषयस्पर्शसे मुक्त नही हो सकता। ऐसी वस्तुस्थिति होने पर भी दो नयोका जो भेद किया जाता है उसका तात्पर्य विषयके गोप-प्रधान भावमे । ही है । जव विशेष रूपको गौण रखकर और मुख्य रूप से सामान्य रूपका अवलम्बन लेकर दृष्टि प्रवृत्त होती है तब वह द्रव्यास्तिक है, और जब सामान्य रूपको गीण, बनाकर तथा विशेष रूपको प्रधान भावसे ग्रहण कर दृष्टि प्रवृत्त होती है तब वह पर्यायास्तिक है ऐसा समझना चाहिए। दोनों नय एक-दूसरे के विषयको कैसे देखते है इसका कथन
दवढियवत्तवं अवत्थु णियमेण पज्जवणयरा ।
तह पज्जववत्थु अवत्थुमेव दवष्टियनय ॥१०॥
अर्थ द्रव्यारिकका वाय पर्यायास्तिककी दृष्टिमे नियमसे अवस्तु है। इसी तरह पर्यायास्तिककी वक्तव्य-वस्तु द्रव्यास्तिककी दृष्टिमे अवरतु ही है।
विवेचन विवक्षासे दोनो नयोके विषयको जो भेद कहा गया है उसीका स्पष्टीकरण यहाँ किया है। द्रव्यास्तिक नय वस्तुको मात्र सामान्यरूप ही ) देखता है, जब कि पर्यायास्तिक नय उसी वस्तुको मात्र विशेष रूपसे देखता है ।। फलत एक नयका वक्तव्य-स्वरूप दूसरे नयको दृष्टिमे अवस्तु है। यही एक विषयमे प्रवर्तमान दोनो नयोका तथा उनके प्रतिपाच अशोका भेद है। दोनो नय एक ही वस्तुक किन-किन भिन्न रूपोका स्पर्श करते है इसका कयन