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थ जो प्रस्तावनागत मेरे मन्तव्योसे विपरीत थे। ऐतिहासिक दृष्टिसंपन्न तथा असाम्प्रदायिक वृत्तिवाले श्री पं० नायूराम प्रेमी पुन:-पुनः यह कह रहे थे कि मुझे उनका उत्तर देना ही चाहिए; किन्तु मै अपने अन्य कार्योमें व्यस्त रहन के कारण उस विशेषाफको पूरा पढ़ भी नहीं सका था। जब हिन्दी में प्रस्तुत अन्य प्रकाशित फरने का निश्चय किया गया तव श्री जुगलकिशोरजीन सिद्धसेन, उनका समय, उनके अन्य, उनका संप्रदाय आदिक विषय जो आपत्तियां खड़ी की थीं, उनपर विचार करना अनिवार्य हो गया।
બતણવ પ્રસ્તાવના મને યત્રતત્ર-નહાં હોં ન કરાખું સંશોધન નહી या वह कर दिया है, जैसे कि गु० पृ० ५७ और हिन्दी पृ० २ की टिप्पणी १; गु० पृ० ५९ और हिन्दी पृ० ४ की टिप्पणी १; गु० पृ० ६८ और हिन्दी पृ० ११ को टिप्पणी ४; गु० पृ० ७१ और हिन्दी पृ० १४ को टिप्पणी १; गु० पृ० ७३ और हिन्दी पृ० १५ को दूसरी कडिका; गु० पृ० १०३ का 'कुदकुंद अने उमास्वाति' वाला प्रकरण हिन्दी पृ० ३९ में संशोधित है; गु० ११३ में जहां समन्तभद्रका विचार पूरा हुआ है वहाँ हिन्दी पृ० ४७ में आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेनके पावापर्यके विषय नये विचार जोड़े गये है। गु० पृ० ११५ को प्रथम कडिका हिन्दी पृ० ४९ में सशोधित है; गु० पृ० १२४ हिन्दी पृ० ५७ को दिपणी १; गु० पृ० १२६ और हिन्दी पृ० ५९ को टिप्पणी १; गु० पृ० १६२ और हिन्दी पृ० ८७; गु० पृ० १८० पंक्ति ३ के वाद हिन्दी पृ० १०१ में नया जोड़ा गया है। हिन्दी पृ० १०९ की टिप्पणी २; हिन्दी पृ० १११ कडिका १ के अन्त नया जोड़ा है । इत्यादि।
इसके अलावा प्रस्तावनाके अन्तम (पृ० ११४-१२४) 'संपूति' के रूप पावू जुगलकिशोरजीको आपत्तियोके विषयमें विचार किया है। तया ग्रन्थके अन्तम (पृ० १०५) सप्तभंगाके विषयमें एक नया परिशिष्ट जोड़ा है।
सन्मतितके गुजराती विवेचनका अग्रेजी अनुवाद, गुजराती विवेचनको दूसरी आवृत्ति तथा इस हिन्दी अनुवाद के प्रकाशनमें मैने यथाशक्ति जो संशोधन किया है उसमें बहुश्रुत पं० दलसुख मालवियाका मुख्य रूपसे सहकार मिला है। प्रस्तुत हिन्दी आवृत्ति के समय अधिक मात्रामें संशोधन करना पड़ा है और उसमें भी विशेषतः वयोवृद्ध प० मुख्तारजीके अति विस्तृत लेखका यथासंभव संक्षिप्त किन्तु प्रमाणबद्ध उत्तर देना जरूरी था जो सम्पूर्ति रूप दिया गया है। इस कार्य में पं० मालवणियाने लानसे मुझे सहकार दिया है, उसको मै भूल नहीं
सकता।