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वेदक अपीरुपयत्व तथा असर्वज्ञवादको भी प्रमाणविरुद्ध बताते है । इस प्रकार वे अपनी आप्तपरीक्षामे विरोधी दर्शनोकी सविस्तर खण्डनात्मक समीक्षा नामनिर्देशपूर्वक करते है, तो सिद्धसेन अपनी ७०ी बत्तीसीम यही वस्तु दूसरी तरह रखते है । वे देखते है कि महावीरको आप्तके रूपमे मान्य रखनेमे સવસે વડા વ્યવધાન પુરાને વિપતે રહી યર પુરાને સત્ય વેલનેજી परीक्षाशून्य श्रद्धा है । इससे वे पहले पुरातनता क्या है और पुरातनके साथ सत्यका क्या सम्बन्ध है, इसकी कोर एव तलस्पर्शी समालोचना करते है। ऐसा रनेपर वे शत्रुओके बढ जानकी, निन्दा होनेकी या अन्य किसी प्रकारकी परवाह किये बिना अपना तर्कप्रवाह बहाते जाते है, और सभी वस्तुका तकसे परीक्षापूर्वक स्वीकार या परिहार करना चाहिए, ऐसा सूचित करके अन्तम तर्कका कसोटीसे स्वय महावीरको ही आप्तके रूप में स्वीकार करते है। कालिदासने पुराने में गुण देखनेकी और नयेमे दोष देखनेको अन्धश्रद्धाका तपूर्वक निषेध किया है, परन्तु वह तो काव्यको उद्दिष्ट करके और वह भी अत्यन्त सक्षेपमें ही, जव कि सिद्धसेनने पुरातनता और नवीनताकी जो समीक्षा की है, वह अत्यन्त वैविध्यपूर्ण तथा सब विषयोमे लागू हो सके ऐसी है। इसीसे हम पहले भी कह चुके है कि 'पुराणमित्येव न साधु सर्वम्' इत्यादि कालिदासका पद्य छ०ी बत्तीसीमें भाष्यायमाण हुआ है । कालिदासके इसी पद्यका અન્તિમ પાત્ર કસી માવને થોકે રાબ્રિ પરિવર્તન સાથ પહલ્ટી વત્તીની દ્રષ્ટિगोचर होता है।
आठवी बत्तीसी मे मात्र परपराजय और स्वविजयकी इच्छासे होनेवाली जलपकथाकी समीक्षा है। जल्पकथा करनेवाले सहोदर वादियोमे भी कसी शत्रुता जमती है, जल्पकथा करनेवालोमे सत्य और आवेशका तथा त्याग और कुटिलताका कसा विरोध आता है, इस कथाको करनेवाला वादी वादका निर्णय देनेवाले सभापतिका कसा खिलाना बनकर शास्त्रोको किस प्रकार उपहासास्पद बनाता है, कल्याण और वादके मार्ग किस प्रकार एक नही है, यूक उडानेवाली करोडो कलहकयाकी अपेक्षा एक शान्तिकया किस प्रकार उत्तम है, वादीकी नीद किस तरह हराम हो जाती है और वह हार-जीत दोनोमे किस तरह मर्यादा खो बैठता है,
१. उदाहरणार्य ७०ी बत्तीसी लो० १, ५, ८, १६ ।
२. परप्रणयापमति वासन.' (व० १.९) और 'मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः' (मालविका० अक १, प्रस्तावना )।