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________________ ३७० -रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला अ०३, सविकल्पम् १० । अविकल्पनयेनैकपुरुषमात्रवदविकल्पम् ११ । नामनयेन तदात्मवत् शब्दब्रह्मामर्शि १२ । स्थापनानयेन मूर्तित्ववत्सकलपुद्गलालम्बि १३ । द्रव्यनयेन माणवकश्रेष्ठिश्रमणपार्थिववदनागतातीतपर्यायोद्भासि १४ । भावनयेन पुरुषायितप्रवृत्तयोषिद्वत्तदात्वपर्यायोल्लासि १५ । सामान्यनयेन हारस्रग्दामसूत्रवद्व्यापि १६ । विशेषनयेन तदेकमुक्ताफलवदव्यापि १७ । नित्यनयेन नटावदवस्थायि १८ । अनित्यनयेन रामरावणवदनवस्थायि १९ । सर्वगतनयेन विस्फारिताक्षचक्षुर्वत्सर्ववर्ति २० । असर्वगतनयेन मीलिताक्षचक्षुर्वदात्मवर्ति २१ । शून्यनयेन शून्यागारवत्केवलोद्भासि २२ । अशून्यनयेन लोकाक्रान्तनौवन्मिलितोद्भासि २३। ज्ञानज्ञेयाद्वैतनयेन महदिन्धनमारपरिणतधूमकेतुवदेकम् २४ । ज्ञानज्ञेयद्वैतनयेन परप्रतिबिम्बसंपृक्तदर्पणवदनेकम् २५। नियतिनयेन नियमितौष्ण्यवह्निवन्नियतस्वभावभासि २६ । अनियतिनयेन नियत्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतस्वभावभासि २७। स्वभावनयेनानिशिततीक्ष्णकण्टकवत्संस्कारानर्थक्यकारि २८ अस्वभावनयेनायस्कारनिशिततीक्ष्णविशिखवत्संस्काक्षितैकग्रामगृहादिस्थितम् । इत्यादि परस्परसापेक्षानेकनयैः प्रमीयमाणं व्यवह्रियमाणं क्रमेण मेचकखभावविवक्षितैकधर्मव्यापकत्वादेकखभावं भवति । तदेव जीवद्रव्यं प्रमाणेन प्रमीयमाणं मेचकखभावानामनेकधर्माणां युगपद्वयापकचित्रपटवदनेकखभावं भवति । एवं नयप्रमाणाभ्यां तत्त्वविचारकाले योऽसौ परमात्मद्रव्यं जानाति स निर्विकल्पसमाधिप्रस्तावे निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानेखुली आँख समस्त घट पटादि पदार्थों में प्रवर्तती है । असर्वगतनयकर अपनेमें ही प्रवृत्ति करती है, जैसे बंद किया हुआ नेत्र अपने में ही मौजूद रहता है। शून्यनयकर केवल एक ही शोभायमान है, जैसे शून्य घर एक ही है। अशून्यनयकर अनेकोंसे मिला हुआ शोभता है, जैसे अनेक लोगों से भरी हुई नाव शोभती है। ज्ञान ज्ञेयके अभेद कथनरूप नयकर एक है, जैसे अनेक ईंधनरूप परिणत हुई आग एक है। ज्ञानज्ञेयके भेदकथनरूपनयकर अनेक है, जैसे आरसी (दर्पण) अपने अनेक घट पटादि पदार्थों के प्रतिविम्बसे अनेकरूप होती है। नियतनयकर अपने निश्चित स्वभावको लिये हुए है, जैसे जल अपने सहज स्वभावकर शीतलता लिए होता है। अनियतनयकर अनिश्चित स्वभाव है,जैसे पानी आगके सम्बन्धसे उष्ण हो जाता है। स्वभावनयकर किसीका बनाया हुआ नहीं होता, जैसे स्वभावकर कांटा विना बनाया हुआ तीखा (पैना) होता है । अस्वभावनयकर सँभाला हुआ होता है, जैसे लोहेका बाण बनानेसे तीखा होता है। कालनयकर कालके आधीन सिद्धि होती है, जैसे ग्रीष्मकाल (गर्मी) के अनुसार डालका आम सहजमें पक जाता है। अकालनयकर कालके आधीन सिद्धि नहीं है, जैसे घासकी गर्मीसे पालमें आम पक जाता है। पुरुषाकारनयसे यत्नसे सिद्धि होती है, जैसे शहद के उत्पन्न करनेके लिये काठके छेदमें एक मधुमाखी रखते हैं, उस मक्षिकाके शव्दसे दूसरी शहदकी मक्खियाँ आकर अपने आप मधुछत्ता बनाती हैं, इस तरह यत्नसे भी शहदकी सिद्धि होती है,उसी प्रकार यत्नसे भी द्रव्यकीसिद्धि होती है । दैवनयकर विना यत्न भी साध्यकी सिद्धि होती है, जैसे यत्न किया था शहदके लिये परंतु दैवसंयोगसे उस मधुछत्ते में माणिकरत्नकी प्राप्ति हो गई,इस तरह यत्न विना भी सिद्धि होती है । ईश्वरनयकर पराधीन हुआ भोगता
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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