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________________ १५.] . . . . -प्रवचनसार: २८९ श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरवृत्तिहेतुमात्रत्वेनादीयमाने भक्ते. तथाविधशरीरवृत्त्य. विरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरङ्गनिस्तरङ्गविश्रान्तिसूत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे नीरङ्गनिस्तरङ्गान्तरङ्गद्रव्यप्रसिद्ध्यर्थमध्यास्यमाने गिरीन्द्रकन्दरप्रभृतावावसथे यथोक्तशरीरवृत्तिहेतुमार्गणार्थमारभ्यमाणे “विहारकर्मणि श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिध्यमाने केवलदेहमाने उपधौ अन्योन्यबोध्यबोधकभावमात्रेण कथंचित्परिचिते श्रमणे शब्दपुद्गलोल्लाससंवलनकश्मलितचिद्भित्तिभागायां शुद्धात्मद्रव्यविरुद्धायां चैतेष्वपि तद्विकल्पाचित्रितचित्तभित्तितया प्रतिषेध्यः प्रतिबन्धः ॥ १५॥ दर्पविनाशकारणभूतत्वेन निर्विकल्पसमाधिहेतुभूते क्षपणे वानशने आवसधे वा परमात्मतत्त्वोपलब्धिसहकारिभूते गिरिगुहाद्यावसथे वा पुणो विहारे वा शुद्धात्मभावनासहकारिभूताहारनीहारार्थव्यवहारार्थव्यवहारे वा । पुनर्देशान्तरविहारे वा उवधिम्हि शुद्धोपयोगभावनासहकारिभूतशरीरपरिग्रहे ज्ञानोपयोगकरणादौ वा समणम्हि परमात्मपदार्थविचारसहकारिकारणभूते श्रमणे समशीलसंघातकतपोधने वा । विकधम्हि परमसमाधिविघातशृङ्गारवीररागादिकथायां चेति । अयमत्रार्थः-आगमविरुद्धाहारविहारादिषु तावत्पूर्वमेव निषिद्धः । योग्याहारविहारादिबपि [ आवसथे] गुफा आदिक निवासस्थलमें [वा पुनः ] अथवा [ विहारे ] विहार-कार्यमें [वा] अथवा [उपधौ] शरीरमात्र परिग्रहमें [वा] अथवा [श्रमणे] दूसरे मुनियोंमें [ वा] अथवा [ विकथायां ] अधर्म-चर्चामें [ निबन्धं] ममत्वपूर्वक सम्बन्धको [ न ] नहीं: [इच्छति ] चाहता है । भावार्थ-मुनिपदका निमित्तकारण शरीर है, और शरीरका आधार आहार है, इसलिये उसको मुनि ग्रहण करते हैं, और अपनी शक्तिके अनुसार शुद्धात्मामें निश्चल स्थिरताके निमित्तभूत उपवासको स्वीकार करते हैं, और मनकी चंचलताको रोकनेके लिये एकान्त पर्वतकी गुफ़ादिकके निवासको, तथा शरीरकी प्रवृत्तिके लिये आहार नीहार क्रियामें विहारकार्यको भी करते हैं, और उनके मुनिपदवीका निमित्तकारण शरीरमात्र परिग्रह भी है, तथा गुरु शिष्यके भेदसे पठन-पाठन अवस्थामें दूसरे मुनियोंका सम्बन्ध भी है, और शुद्धात्म द्रव्यकी विरोधिनी पौद्गलिक शब्दोंके द्वारा कथा चर्चा भी है । यद्यपि मुनिके परद्रव्यरूप परिग्रह है, तथापि इनमें ममत्वबुद्धिरूप चित्तवृत्तिका निषेध हैं । यद्यपि मुनिने स्थूल परद्रव्यका त्याग तो प्रथम ही कर दिया है, तथापि मुनिपदमें भी इस प्रकारके सूक्ष्म परद्रव्यके अस्तित्वमें ममत्वभाव नहीं करना चाहिये, क्योंकि इनमें भी ममत्व भाव करनेसे शुद्धात्म द्रव्यवृत्तिरूप मुनिपदका भंग हो जाता है । इसलिये सूक्ष्म परद्रव्योंमें प्र० ३७
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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