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-प्रवचनसारःत्मनस्तथाविधपरिणामो द्रव्यकर्मैव । तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्र्व्यकर्मकर्ताप्युपचारात् ॥ २९ ॥ अथ परमार्थादात्मनो द्रव्यकर्माकर्तृत्वमुद्योतयति
परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया। किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता ॥ ३०॥
परिणामः स्वयमात्मा सा पुनः क्रियेति भवति जीवमयी ।
क्रिया कर्मेति मता तस्मात्कर्मणो न तु कर्ता ॥ ३० ॥ आत्मपरिणामो हि तावत्स्वयमात्मैव, परिणामिनः परिणामस्वरूपकर्तृत्वेन परिणामादनन्यत्वात् । यश्च तस्य तथाविधः परिणामः सा जीवमय्येव क्रिया, सर्वद्रव्याणां परि'णामलक्षणक्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात् । या च क्रिया सा पुनरात्मना स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म । ततस्तस्य परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एव कर्ता, न रूपो भावकर्मस्थानीयः सरागपरिणाम एव कर्मकारणत्वादुपचारेण कर्मेति भण्यते । ततः स्थित रागादिपरिणामः कर्मबन्धकारणमिति ॥ २९ ॥ अथात्मा निश्चयेन खकीयपरिणामस्यैव कर्ता न च द्रव्यकर्मण इति प्रतिपादयति ।। अथवा द्वितीयपातनिका-शुद्धपारिणामिकपरमभावनाहकेण शुद्धनयेन यथैवाकर्ता तथैवाशुद्धनयेनापि सांख्येन यदुक्तं तन्निषेधार्थमात्मनो बन्धमोक्षसिद्ध्यर्थं कथंचित्परिणामित्वं व्यवस्थापयतीति पातनिकाद्वयं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं निरूप'पयति-परिणामो सयमादा परिणामः खयमात्मा आत्मपरिणामस्तावदात्मैव । कस्मात्परिणामपरिणामिनोस्तन्मयत्वात् । सा पुण किरिय त्ति होदि सा पुनः क्रियेति भवति स च परिणामः क्रिया परिणतिरिति भवति । कथंभूता । जीवमया जीवेन निवृत्तत्वाज्जीवमयी कर्मबंधके कारण हैं, और रागादि विभावपरिणामका कारण द्रव्यकर्म है, क्योंकि द्रव्यकर्मके उदय होनेसे भावकर्म होता है । यहाँपर कोई यह प्रश्न करे, कि ऐसा होनेसे इतरेतराश्रय दोष आता है, क्योंकि रागादि विभावपरिणामोंसे द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्मसे विभावपरिणाम होते हैं ? इसका उत्तर इस प्रकार है, कि-यह आत्मा अनादिकालसे द्रव्यकर्मोंकर बंधा हुआ है, इस कारण पूर्व बँधे द्रव्यकर्म उस रागादि विभावपरिणामके कारण होते हैं, और विभावपरिणाम नवीन द्रव्यकर्मके कारण होते हैं, इसलिये एक दूसरेके आश्रयरूप इतरेतराश्रय दोष नहीं हो सकता। इस तरह नवीन प्राचीन कर्मका भेद होनेसे कार्य कारणभाव सिद्ध होता है । आत्मा नियमसे अपने विभावरूप रागादि भावकर्मोंका कर्ता है, और व्यवहारसे द्रव्यकर्मोंका भी कर्ता कहा जाता है ॥ २९ ॥ आगे निश्चयनयसे 'आत्मा द्रव्यकर्मका अकर्ता है' यह कहते हैं[ परिणामः ] जो आत्माका परिणाम है, वह [खयं ] आप [ आत्मा] जीव ही है, [ पुनः ] और [क्रिया] वह परिणामरूप क्रिया [ जीवमयी ] जीवकर