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________________ १२० - रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा० २ मानस्तन्मय एव, तथैव हि सर्व एव पदार्थोऽवस्थायिना विस्तारसामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयतसामान्यसमुदायेन च द्रव्यनाम्नाभिनिर्वर्त्यमानो द्रव्यमय एव यथैव च पटेऽवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नायतसामान्यसमुदायो वा गुणैरभिनिर्वर्त्य - मानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एव, तथैव च पदार्थेष्ववस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नाय तसामान्यसमुदायो वा द्रव्यनामा गुणैरभिनिर्वर्त्यमानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एव । यथैव चानेकपटात्मको द्विपटिका त्रिपटिकेति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः, तथैव चानेकपुद्गलात्मको द्व्यणुकख्यणुक इति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव चानेककौशेयककार्पासमयपटात्मको द्विपटिकात्रिपटिकेत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः, तथैव चानेकजीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः यथैव च क्वचित्पटे स्थूलात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण कालक्रमप्रवृत्तेन नानाविधेन परिणमनान्नानात्वप्रतिपत्तिर्गुणात्मकः स्वभावपर्यायः, तथैव च समस्तेष्वपि तिर्यक्सामान्योर्द्धतासामान्यलक्षणं कथ्यते - एककाले नानाव्यक्तिगतोऽन्वयस्तिर्यक्सामान्यं भण्यते, तत्र दृष्टान्तो यथा - नानासिद्धजीवेषु सिद्धोऽयं सिद्धोऽयमित्यनुगताकारः सिद्धजातिप्रत्ययः । नानाकालेष्वेकव्यक्तिगतोन्वय ऊर्ध्वता सामान्यं भण्यते । तत्र दृष्टान्तः यथा - य एव केवलज्ञानोत्पत्तिलक्षणे मुक्तात्मा द्वितीयादिलक्षणेष्वपि स एवेतिप्रतीतिः, अथवा नाना गोशरीरेषु जिससे कि अतीत अनागत वर्तमान कालमें क्रमवर्ती हैं । पर्यायके दो भेद हैं- एक द्रव्यपर्याय और दूसरे गुणपर्याय । इनमेंसे अशुद्ध द्रव्यपर्यायका लक्षण कहते हैंअनेक द्रव्य मिलकर जो एक पर्यायका होता है, सो द्रव्यपर्याय है । यह द्रव्यपर्याय दो प्रकार है, एक समान जातीय, दूसरा असमान जातीय । समान जातीय जैसेअनेक जातिके पुद्गलरूप द्व्यणुक त्र्यणुक आदि, और असमान जातीय जैसे- जीव पुद्गल मिलकर देव मनुष्यादि पर्याय, और भिन्न जातीय द्रव्यके संयोगसे गुणकी परिणतिरूप गुणपर्याय होती है, सो भी दो प्रकार है, एक स्वभाव गुणपर्याय, दूसरी विभाव गुणपर्याय | स्वभाव गुणपर्याय वह है, जो समस्त द्रव्य अपने अपने अगुरुलघुगुणों से समय समय पगुणी हानि वृद्धिरूप परिणमन करें, और विभावगुण पर्याय वह है, जो वर्णादि गुण पुद्गलस्कंधों में ज्ञानादि गुण जीवमें पुद्गल के संयोगके पहले आगामी दशामें हीनाधिक होकर परिणमन करें। आगे इसीको उदाहरणसे दृढ़ करते हैं-जैसे शुकादि गुणोंसे अपनी परिणतिरूप पर्यायसे सिद्ध हैं, इसलिये गुणपर्यायमय व है । इसी प्रकार द्रव्य गुणपर्यायमय है, और जैसे वस्त्र शुकादि गुण पर्यायोंसे जुदा नहीं है, इसी प्रकार द्रव्य गुण पर्यायोंसे जुदा नहीं है । जैसे वन्त्रके दो तीन पाट मिलकर समानजातीय पर्याय होता है, उसी प्रकार पुलके झ्यणुक व्यणुकादि अनेक समानजातीय पर्याय होते हैं । जैसे वस्त्रके रेशम कपासके दो तीन पाट मिलके अस
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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