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४६.] . . . - प्रवचनसारः - अथ केवलिनामिव सर्वेषामपि स्वभावविघाताभावं निषेधयति
जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण । .. संसारो वि ण विज दि सवेसिं जीवकायाणं ॥ ४६॥
यदि स शुभो वा अशुभो न भवति आत्मा स्वयं स्वभावेन ।
संसारोऽपि न विद्यते सर्वेषां जीवकायानाम् ॥ ४६॥ यदि खल्वेकान्तेन शुभाशुभभावस्वभावेन स्वयमात्मा न परिणमते तदा सर्वदैव सर्वथा निर्विघातेन शुद्धस्वभावेनैवावतिष्ठते । तथा च सर्व एव भूतग्रामाः समस्तबन्धतर्हि वृथा भवति । परिहारमाह-औदयिका भावा बन्धकारणं भवन्ति, परं किंतु मोहोदयसहिताः । द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदैव बन्ध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः ॥ ४५ ॥ अथ यथार्हतां शुभाशुभपरिणामविकारो नास्ति तथैकान्तेन संसारिणामपि नास्तीति सांख्यमतानुसारिशिष्येण पूर्वपक्षे कृते सति दूपणद्वारेण परिहारं ददाति-जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहा. वेण यथैव शुद्धनयेनात्मा शुभाशुभाभ्यां न परिणमति तथैवाशुद्धनयेनापि स्वयं खकीयोपाहंत भगवानके जो दिव्यध्वनि, विहार आदि क्रियायें हैं, वे पूर्व बँधे कर्मके उदयसे हैं । वे आत्माके प्रदेशोंको चलायमान करती हैं, परंतु राग, द्वेष, मोह भावोंके अभावसे आत्माके चैतन्य विकाररूप भावकर्मको उत्पन्न नहीं करतीं। इसलिये औदायिक हैं, और आगे नवीन बंधमें कारणरूप नहीं हैं, पूर्वकर्मके क्षयमें कारण हैं। तथा जिस कर्मके उदयसे वह क्रिया होती है, उस कर्मका बंध अपना रस (फल) देकर खिर जाता है, इस अपेक्षा अरहंतोंकी क्रिया कर्मके क्षयका कारण है। इसी कारण उस क्रियाको क्षायिकी भी कहते हैं, अर्थात् अरहंतोंकी दिव्यध्वनि आदि क्रिया नवीन बंधको करती नहीं है, और पूर्व बंधका नाश करती है, तब क्यों न क्षायिकी मानी जावे ? अवश्य मानने योग्य है । इससे यह बात सिद्ध हुई, कि केवलीके बंध नहीं होता, क्योंकि कर्मका फल आत्माके भावोंको घातता नहीं। मोहनीयकर्मके होनेपर क्रिया आत्मीकभावोंका घात करती है, और उसके अभावसे क्रियाका कुछ भी बल नहीं रहता ॥ ४५ ॥ आगे कहते हैं, कि जैसे केवलीके परिणामों में विकार नहीं हैं, वैसे अन्य जीवोंके परिणामों में विकारोंका अभाव भी नहीं है-यदि] जो [सः] वह आत्मा [खभावेन ] अपने स्वभावसे [वयं] आप ही [शुभः] शुभ परिणामरूप [वा ] अथवा [ अशुभः] अशुभ परिणामरूप [न भवति ] न होवे, [तदा] तो [ सर्वेषां] सब [ जीवकायानां ] जीवोंको [संसार एव] संसार परिणति ही [न विद्यते] नहीं मौजूद होवे । भावार्थआत्मा परिणामी है। जैसे स्फटिकमणि काले, पीले, लाल फूलके संयोगसे उसीके आकार