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- रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० १, गा० ३५अथात्मज्ञानयोः कर्तृकरणताकृतं भेदमपनुदति
जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा। णाणं परिणमदि सयं अट्ठा णाणट्टिया सबे ॥ ३५॥
यो जानाति स ज्ञानं न भवति ज्ञानेन ज्ञायक आत्मा ।
ज्ञानं परिणमते स्वयमा ज्ञानस्थिताः सर्वे ॥ ३५ ॥ ' अपृथग्भूतकर्तृकरणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति स एव ज्ञानमन्तर्लीनसाधकतमोष्णत्वशक्तेः स्वतत्रस्य जातवेदसो दहनक्रियाप्रसिद्धरुष्णव्यपदेशलावृताखण्डैकज्ञानरूपजीवस्य मतिज्ञानश्रुतज्ञानादिव्यपदेशो भवतीति भावार्थः ॥ ३४ ॥ अथ भिन्नज्ञानेनात्मा ज्ञानी न भवतीत्युपदिशति-जो जाणदि सो णाणं यः कर्ता जानाति स ज्ञानं भवतीति । तथाहि-यथा संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि सति पश्चादभेदनयेन दहनक्रियासमर्थोष्णगुणेन परिणतोऽग्निरप्युष्णो भण्यते, तथार्थक्रियापरिच्छित्तिसमर्थेन ज्ञानगुणेन परिणत आत्मापि ज्ञानं भण्यते । तथा चोक्तम्-'जानातीति ज्ञानमात्मा' ण हवदि णाणेण जाणगो आदा सर्वथैव भिन्नज्ञानेनात्मा ज्ञायको न भवतीति । अथ मतम्-यथा भिन्नदात्रेण धिका काम ही नहीं है। लेकिन 'श्रुतज्ञान' ऐसा कहनेका कारण यह है, कि कर्मके संयोगसे द्रव्यश्रुतका निमित्त पाकर ज्ञान उत्पन्न होता है । यदि वस्तुके स्वभावका विचार किया जाय, तो ज्ञान ज्ञानसे ही उत्पन्न होता है, इसी लिये ज्ञानके कोई श्रुत बगैरः उपाधि नहीं है ॥ ३४ ॥ आगे कितने ही एकान्तवादी ज्ञानसे आत्माको भिन्न मानते हैं, सो उनके पक्षको दूर करनेके लिये आत्मा की है, ज्ञान कारण है, ऐसा . ' भिन्नपना दूर करके आत्मा और ज्ञानमें अभेद सिद्ध करते हैं-[यः] जो आत्मा [जानाति ] जानता है, [सः] वह [ज्ञानं ] ज्ञान है। [ज्ञानेन] ज्ञान गुणसे [ज्ञायकः] जाननेवाला [आत्मा] आत्मा अर्थात् चेतनद्रव्य [न भवति] नहीं होता । [ज्ञानं] ज्ञान [खयं] आप ही [परिणमते] परिणमन करता है, [सर्वे अर्थाः] और सब ज्ञेय पदार्थ [ज्ञानस्थिताः] ज्ञानमें स्थित हैं। भावार्थ-यद्यपि . व्यवहार में संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादि भेदोंसे ज्ञान और आत्माको वस्तुके समझनेके लिये भिन्न कहते हैं, परन्तु निश्चयमें ज्ञान और आत्मामें भिन्नपना नहीं है, प्रदेशोंसे ज्ञान और आत्मा एक है। इसी कारण ज्ञानभावरूप परिणमता आत्मा ही ज्ञान है। जैसे अनि ज्वलनक्रिया करनेका कर्ता है, और उष्णगुण ज्वलन क्रियाका कारण है। अग्नि और उष्णपना व्यवहारसे भिन्न हैं, परन्तु यथार्थमें भिन्न नहीं है, जो अग्नि है, वही उष्णपना है, और इसलिये अग्निको उष्ण भी कहते हैं । इसी प्रकार यह आत्मा जाननेरूप क्रियाका कर्ता है, और ज्ञान जानन-क्रियाका साधन