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________________ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० १, गा० १२अथ चारित्रपरिणामसंपर्कासंभवादत्यन्तहेयस्याशुभपरिणामस्य फलमालोचयति असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अचंतं ॥१२॥ अशुभोदयेनात्मा कुनरस्तिर्यग्भूत्वा नैरयिकः ।। दुःखसहजैः सदा अभिधृतो भ्रमत्यत्यन्तम् ॥ १२ ॥ यदायमात्मा मनागपि धर्मपरिणतिमनासादयन्नशुभोपयोगपरिणतिमालम्बते तदा कुमनुष्यतिर्यकारकभ्रमणरूपं दुःखसहस्रबन्धमनुभवति । ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्ययोगभेदेन च द्विधा भवति । तत्र यच्छुद्धसंप्रयोगशब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरांगचारित्रं तेन निर्वाणं लभते । निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभोपयोगरूपसरागचारित्रेण परिणमति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखविपरीतमाकुलत्वोत्पादकं स्वर्गसुखं लभते । पश्चात् परमसमाधिसामग्रीसद्भावे मोक्षं च लभते इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ अथ चारित्रपरिणामासंभवादयन्तहेयस्याशुभोपयोगस्य फलं दर्शयति-असुहोदयेण अशुभोदयेन आदा आत्मा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो कुनरस्तिर्यकारको भूत्वा । किं करोति । दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अञ्चतं दुःखसहस्रैः सदा सर्वकालमभिधृतः कदर्थितः परिणतिको धारण करता है, तब इसकी शक्ति कर्मोंसे रोकी जाती है । इसलिये मोक्षरूपी कार्य करनेको असमर्थ हो जाता है। फिर उस शुभोपयोग परिणमनसे कर्मबन्धरूप वर्गोके सुखोंको ही पाता है। यद्यपि शुभोपयोग चारित्रका अंग है, तो भी अपने सुखसे उलटा परके आधीन संसारसंबन्धी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले सुखका कारण है। क्योंकि यह राग-कषायसे मिला हुआ है, और जो इन्द्रियजन्य सुख है, वह वास्तवमें दुःख ही है। जैसे कोई पुरुष गरम घी अपनी देहपर डालता है, तो उससे वह दाहके दुःखको पाता है। ऐसे घीके भी लगनेसे कुछ शांतपना नहीं होता। जिस तरह केवल आगके जलनेसे दुःख होता है, वैसा ही दुःख इस गरम घीसे भी होता है । इस इन्द्रियजनित सुखको गरम घीके समान जानना चाहिये । अर्थात् यह श संसारके फलको देता है, इस कारण अशुभोपयोगके समान त्यागने कशी शुद्धोपयोग, आत्मीकसुखको ‘कि 'जिसमें किसी तरहकी भी आकुलता :.". इसलिये उपादेय है ॥११॥, आगे बिलकुल त्यागने योग्य और चारित जो अशुभोपयोग है, उसके फलको दिखाते हैं-[अशुभोदयेन श्रीन पह...१२ भ्रमति] अवृत, विषय, कषायरूप अशुभोपयोगोंसे परिणमता यह बहिर्मुख संसारीजीव है, वह बहुत कालतक संसारमें भटकता है भाव संहितो [कुनरः तिर्यग्नैरयिकः भूत्वा सदा अभिद्रुतः] खोटा (दु और करता
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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