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________________ १६ ] 1^ सत्य संगीत 4101 निर्वल बेचारे धुतकारे जाते है ॥ अबलाओ को है लोग लोग पीसते ऐसे चक्की के दोनों पाट अन्न को जैसे ॥ [ ९ ] बलवान स्वार्थ को धर्म धर्म कहता है । निर्बल मौनी वन सारे दुख सहता है ॥ समताभावों की हँसी उडायी जाती । है न्यायशीलता पद पद ठोकर खानी ॥ [ १० ] तेरे पुत्रों ने था जो मार्ग दिखाया | उस पर लोगों ने ऐसा जाल बिछाया । दलदल | खोकर बल | सब भूले तुझको बना दलो का उसमे फँसते है मरते हैं [ ११ ] अब है उदारता का न नाम भी बाकी | गाली खाती फिरती है आज वराकी || हर जगह मकुचितता है राज्य जमाती । जनता तेरा पथ छोड़ भागती जाती ॥ [१२] टोगो ने वर्मासन भी छीन लिया है | धार्मिकता का भी चोला बदल दिया है | नमल से भारी पाप न पूछे जाते । नियाप किरा पर सत्र ही ओख उठाने ॥
SR No.010833
Book TitleSatya Sangit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1938
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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