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सत्य-संगीत
उलहता
कोमल मन देना ही था तो,
क्यों इतना चैतन्य दिया । शिशु पर भूपण-भार लादकर,
क्यों यह निर्दय प्यार किया ॥१॥ यदि देते जडता, जगके दुख
हानि नहीं कुछ कर पाते । त्रिविध-ताप से पीडित करके,
मेरी शान्ति न हर पाते ॥२॥ जडता मे क्या शान्ति न होती,
अच्छा था जडता पाता । किसका लेना किसका देना,
वीतराग सा बन जाता ॥ ३ ॥ अपयश का भय कर्तव्यों की
रहती फिर कुछ चाह नहीं । तुम सुख देते या दुख देते,
होती कुठ पर्वाह नहीं ॥ ४ ॥