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________________ [ ९७ अरे अगर भावना ही बतलाऊ, कहती 'कैसा खुद मुख्तार । त्रिना युक्ति के पागल जैसे, सुन सकता है कौन विचार' ॥१०॥ यदि सत्रका मै करूं समन्वय, कहती है 'कैसा बकवाद । एक बात का नहीं ठिकाना, देता है खिचडी का स्वाद ' ॥११॥ एक बात दृढता से बोलू, कहती 'ढीठ और मुँहजोर, सुनता हैं न किसी की बातें, मचा रहा अपना ही शोर' ॥१२॥ सोचा बहुत करूं क्या जिससे, हो इस दुनिया को सतोष, सेवा यह स्वीकार करे या नहीं करे पर करे न रोष ॥१३॥ सोचा बहुत नहीं पाया पय, समझा यह सब है बेकार, दुनिया को खुश करने का है यत्न मूर्खता का आगार ॥१४॥ जन्तु, खुदको प्रसन्न कर, जिससे हो प्रसन्न सत्येग । बकती है दुनिया बकने दे, ढककर रख तू कान हमेश ||१५|| सज्जन - दुर्जन-मय दुनिया में, होंगे कुछ सज्जन वीमान । आज नहीं तो कल समझेंगे, तेरा ध्येय और ईमान ॥ १६ ॥ अपरिमेय ससार पडा है, अपरिमेय आंवगा काल । उसमें कहीं मिलेगा कोई, जो समझेगा तेरा हाल ॥१७॥ चिंता की कुछ बात नहीं है कर्मयोग से करले कर्म । दुनिया खुश हो या नाखुश हो, होगा तेरा पूरा धर्म ॥१८॥ सच्चा यश रहता है मनमे, दुनिया की तब क्या पर्वाह । दुनिया का यश छाया सम है, देख नहीं तू उसकी राह ॥ १९ ॥ सत्य अहिंसाके चरणों मे, करदे तू अपना उत्सर्ग, तब तेरी मुठ्ठी में होगा, सारा सुयश स्वर्ग अपवर्ग ||२०|| क्या करूं 744
SR No.010833
Book TitleSatya Sangit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1938
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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