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________________ जिससे कि धर्मकी और कोमकी न सही जाय, ऐसी बदनक्षी जनेतर लोक करते हैं. और इस पवित्र धर्मकी तर्फ घृणित विचार प्रकट करते है. इस बात के लियेभी अपनेको कोई ऐसा प्रबंध करनेकी जरूरन है. जिससंकि धर्मकी हीलनारूप धार फलंक अपने शिरपर न आये! यह जमाना खंडन मंटन या कटार भापाक व्यवहार करनेका नहीं है. किंतु शांततापूर्वक अईन परमात्माके कहे सचे नत्वांको समझा कर प्रचार करनेका है. वर्तमान समयमें प्रचलित राज्य भाषा जो कि, इंग्लिश है उसका ज्ञानभी साधु ओम होने की जरूरत है. कितनेक साधुनोंकी इतनी संकुचित वृत्ति है कि, उपाश्रयके बाहर क्या हो रहा है ? इसकाभी पना नहीं है ! यही कारण है, जो जन जातिकी संख्या प्रतिदिन घटती जाती है ! जबके अन्य जातियें अपनी उन्नतिको नदीके परके समान बहा रही है तो जन जाति जोकि उन्नतिकी ही मूर्ति कही जा सकती है, उसको अपनी उन्नतिमें योग्य ध्यान नहीं देना अतीव चिंतनीय है ! महानुभावो ! सोचो ! यदि ऐसीही स्थिति दो चार शताद्री तक रही तो, न मालूम, जैन जातिका दरज़ा इतिहासमें कहां पर जा ठहरेगा. ? इस लिये अपनेको इन वातोपर विचार कर ऐसा प्रबंध करना चाहिये. जिससे कि अपने समुदायकी तर्फसे धर्मकी उन्नति प्रतिदिन अधिकसे अधिक हो और उसकी छाप दूसरे समुदायपरभी पडे !
SR No.010821
Book TitleMuni Sammelan Vikram Samvat 1969 Year 1912
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Sharma
PublisherHirachand Sancheti tatha Lala Chunilal Duggad
Publication Year1912
Total Pages59
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tithi, Devdravya, & History
File Size3 MB
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