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________________ ९ साधुओंकी हालकी स्थिति तथा संकुचित वृत्ति आदिकी तर्फ ख्याल करनेसे सुगम नहीं मालूम होता. क्यों कि ऐसे सम्मेनोंद्वारा होनेवाले फायदोंकी तर्फ दृष्टि किसी पुण्यशाली पुरुपकीही होती है. सम्मेलनोंद्वारा किये हुए नियमोंकों जब अमल में लानेकी आवश्यकता होती है तब उस तरफ विलकुल दुर्लक्ष जैसा दिखाई देता है. जहां ऐसी स्थिति हो वहां सम्मेनोंद्वारा हुए नियमोंको यथार्थ मान मिलना और उनका उत्साहपूर्वक पालन करना असंभव नहीं, परन्तु मुश्किल तो अवश्य है. अस्तु ऐसा होनेसे अपनेको निराश होना नहीं चाहिये. प्रयत्न करना अपना कर्तव्य है. और इस कर्तव्यकी तर्फ उत्साहपूर्वक लगे रहेंगे तो कभी न कभी अवश्य सफलता प्राप्त होगी. मान्य मुनिवरो ! जमाने हाल में विद्या प्राप्त करनेके अनेक साधनोंके होनेपरभी कितनोंने, उच्च विद्या प्राप्त की, यह छिपा हुआ नहीं है. उस जमानेकी तरफ ख्याल करो कि, जिस समय महामहोपाध्याय न्याय विशारद श्रीमद यशोविजयजी तथा उपाध्याय श्रीमद विनयविजयजीने काशी जैसे दूर प्रदेशमें जाकर कैसी मुसीवतसे विद्या प्राप्त कीथी ! मगर इस जमाने में जहां चाहे वाहां अच्छेसे अच्छे पंडित रखकर विद्याभ्यास कर सकते हैं इतनी अनुकूलता होनेपरभी साधुओं में उच्च ज्ञानकी बहुत खामी नजर आती है. कितनेक साधु सामान्य ज्ञान अर्थात् साधारण कथा ग्रंथ वांचने जितना वोध हुआ कि, वस सब कुछ आ गया ! ऐसा मानकर आगे अभ्यास करना बंद कर देते हैं. ऐसा नहीं होना
SR No.010821
Book TitleMuni Sammelan Vikram Samvat 1969 Year 1912
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Sharma
PublisherHirachand Sancheti tatha Lala Chunilal Duggad
Publication Year1912
Total Pages59
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tithi, Devdravya, & History
File Size3 MB
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