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________________ ८२ मेरे कथागुरुका कहना है मुखपर सौम्य एवं शालीनताका तेज था। उसके पांवोंमे एक जोड़ी बहुमूल्य सोने-सितारोंसे टॅकी मखमली जूती थी। यह निश्चित होते देर न लगी कि राजाकी ही वह जूती उसने अपने पाँवोंमें चुरा ली थी। 'अपनी घोषणाके अनुसार चोरी करनेसे पहले तुम पकड़े नहीं जा सके, तुम्हारे इस कौशलका मैं प्रशंसक हूँ; किन्तु इस चोरीको तुम न्याय कैसे कह सकते हो ?' राजाके स्वरमे अब प्रसन्नता और प्रशंसाका पुट था। ___'मैने आपकी उस जूतीकी चोरी की है जो आपके पाँवोंके लिए पुरानी और असुविधाजनक होकर अलग कर दी गई है। मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ अपने पाँवोंके लिए जूती कमानेमें असमर्थ ! इस जूतीका अपहरण कर मैने इसे पुनः उपयोगी बना दिया है। यह मेरे पाँवोंके सर्वथा अनुकूल है। दूसरेको आवश्यकता पूर्तिमें बाधक हुए बिना अपने अभावकी पूर्ति, और अनुपयुक्तको उपयोगी बनाना अन्याय कैसे, सुनिश्चित न्याय ही क्यों नहीं है, राजन् ?' ___राजा चोरके इस उत्तरसे बहुत प्रसन्न हुआ और सम्मान-पूर्वक उसे मुक्त करनेकी आज्ञा देते हुए इच्छा प्रकट की कि वह उसे उसका कोई और अभीष्ट पुरस्कार भी देकर बिदा करना चाहता है । 'महाराजकी ऐसी इच्छा है तो मैं आपके महलोंसे एक और वस्तु पाना चाहता हूँ। वही एक वस्तु आपके महलोंमें ऐसी और है जो आपके लिए अनुपयुक्त और उपेक्षित हो चुकी है।' चोरने कहा। राजाकी स्वीकृति पाकर चोरने उसका नाम बताया-राजाकी एक नई, नवयुवा रानी । राजाके महलोंमें इस समय बीस रानियाँ थीं; और यह वैवाहिक क्रममें सोलहवीं यद्यपि विशेष सुन्दर थी, फिर भी राजाकी प्रकृतिके • अनुकूल न होनेके कारण उसके मनसे एकदम उतर चकी थी और उपेक्षित जीवन बिता रही थी।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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