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________________ शीतल ज्वाला १७५ एक हाथके सहारे युवराज्ञीको अपने वक्षसे सटाये रामगुप्तने दूसरे हाथसे युवराजको आगे बढ़नेका संकेत दिया। यन्त्र-चालित-से ही वे आगे बढ़ आये । तलवार उनके हाथमें नीचे लटक गयी थी। युवराज्ञीकी दृष्टि युवराजपर गयी। वह अविचलित, अभीत, आश्वस्त थी। 'प्रेम शीतल और निरीह ही होता है युवराज ! इसकी साक्षीके लिए उसका केवल एक स्पर्श ही सदाके लिए पर्याप्त है। अप्रीति और अप्रतीतिकी शृङ्खलाएँ ही उसमें दाह और अतृप्तिका आभास उत्पन्न कर देती है। इसे समझनेमें जो कुछ अवशिष्ट होगा उसे तुम कलकी वार्तासभामें ग्रहण कर लोगे।' ___ कहते हुए रामगुप्तने समीप आये युवराजके हाथमें युवराज्ञीका हाथ दे दिया। दोनों कक्षसे बाहर हो गये। अगले दिनकी प्रवचन-सभामें रागगुप्तने प्रेमके कुछ और तथ्योंका उद्घाटन किया ः 'घृतकी आहुतिसे अग्नि बढ़ती है। कामकी आहुतिसे काम और भी प्रज्वलित होता है। किन्तु प्रेमकी एक बूंद पड़ते ही प्रेम तृप्त हो जाता है। और निर्बन्ध काम ही प्रेम है।' । युवराज, महाराज, राजपरिवार और प्रजावर्ग सभीकी आंखोंमें प्रेमके एक नये ही स्तरकी तरलता थी। वह सचमुच उसके प्रशान्त, निरीह और सर्वस्पर्शी स्तरको तरलता थी। युवराज्ञीका मुख-मण्डल सबसे अधिक सौम्य एवं सुदीप्त था । इस दीक्षाकी प्रधान पात्रा भी ब्रही थी।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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