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मेरे कथागुरुका कहना है
और असंगतियोंका अध्ययन किया। उनका एक विस्तृत लेखा-जोखा तैयार करके वे अपने मठको लोट आये ।
उनमें से तेरह व्यक्तियोंने अपनी-अपनी खोजका विवरण अपने गुरुके दरबारमें प्रस्तुत करते हुए बताया कि उन्होंने ये ये बातें धर्म और आध्यात्मिकता के प्रतिकूल उस मठमें देखी है, किन्तु चौदहवें व्यक्तिने अपनी अल्पज्ञता और विवशता प्रकट करते हुए कहा :
'महाराज, मैं कुछ भी निश्चय नहीं कर पाया कि उस मठकी कौन-सी बातें धर्म और आध्यात्मिकताके प्रतिकूल हैं । उस मठके सम्बन्धमें बहुतकुछ देख आनेपर भी मैं कुछ नहीं जानता ।'
गुरुने तुरन्त ही अपने धर्मासन से उतरकर इस चौदहवें व्यक्तिको गले से लगा लिया और शिष्य वर्गको सम्बोधित करते हुए कहा :
'बहुत कुछ देखते हुए भी जो निश्चय-पूर्वक कुछ भी नहीं जानता वही वास्तविक रूपमें कुछ और फिर बहुत कुछ जाननेका अधिकारी है । अपने इसी एक शिष्यसे मुझे आशाएँ हैं कि यह झूठे पक्षको वास्तविक असंगतियोंका पता लगाकर नगर-जनोंको उनसे अवगत करेगा और इसके हो प्रयत्नोंके फलस्वरूप एक दिन सम्पूर्ण नगर फिर एक होकर सत्य पक्षका अनुयायी बनेगा ।'
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