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________________ सिद्धिके परे महाराजा गोत्राभुकी घोषणा भूतलके कोने-कोनेमें प्रसारित कर दी गई। उन्हें एक ऐसे समर्थ पात्रकी खोज थी जिसे अपने कोषका समस्त सचित धन दान कर वे आत्म-दीक्षामें प्रविष्ट हो सकें। बड़े-बड़े ब्राह्मण और परिकराधीश गुरुजन राजकोषके द्वारपर जुड़ आये । दान-लाभके साथ-साथ महाराजको शिष्य बनानेकी कामना भी उनमेंसे कई गुरुजनोंके मनमें थी। ___ महाराजने सबका स्वागत किया। जिसमें मेरे इस सम्पूर्ण कोषकी धन-राशिको वहन करनेका सामर्थ्य हो वह आगे आनेका अनुग्रह करे।' महाराजने हाथ जोड़कर विनती की। श्रेयार्थी याचकोंके रथ और छकड़े बाहर खड़े थे। किन्तु इतना बड़ा वाहन या वाहन-दल किसोके पास नहीं था जो उस सम्पूर्ण भण्डारको संगृहीत कर सके। सब मौन थे। उस स्तब्धताको भंग करनेका स्वर किसीके पास नहीं था कि अचानक महायाज्ञिक कामण्डलिकने प्रवेश किया। 'ला राजन्, तेरा दान मुझे स्वीकार है' कहते हुए उन्होंने अपना कमण्डल आगे बढ़ा दिया। महाराजका मस्तक नत हुआ। देखते-देखते राजकोषकी समस्त रत्नराशि उस कमण्डलके एक भागमें समा गई। कोष-कक्षोंमें रखी पाटमञ्जूषादितकका चिह्न वहाँ शेष नहीं रहा। 'तेरे अशेष-दानसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ राजन् ! पातालसे लेकर वैकुण्ठ तककी जो भी सम्पदा और आसुरीसे लेकर ब्राह्मणी तक जो भी सिद्धि तूं चाहे मैं तुझे देता हूँ।' याज्ञिकने कहा ।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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