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नारी वा नारायण नगरके समीप वनस्थलीमें कुटिया बनाकर वह साधक रहता था । उसकी साधना अखण्ड चल रही थी।
नगरको एक समृद्ध तरुणी एक बार उसकी कुटियामें उपस्थित हुई। हाथोमें भोजनका पर्ण-पात्र, आँखोंमें अनुरागमयी श्रद्धा लिये।
साधकने उसकी भेंट स्वीकार की। वह लौट गई।
किन्तु तरुणी अत्यन्त रूपवती थी। साधकका मन उसमे अटक गया था । आश्रम छोड़ उसने नगरकी राह ली और उस सुन्दरीको खोज लिया। उससे उसने जो चाहा वह सभी उसे मिल गया।
साधक अब सुन्दरीके प्रेम-पाशमे था। दिन वह अपनी वन्य कुटियामें जैसे-तैसे काटता और रात्रि अपनी प्रियाके साथ प्रेम-क्रीड़ा-रत उसके नगरावासमें।
एक दिन वह अपनी कुटियामें अन्यमनस्क बैठा था कि महागुरु नारायण स्वामी उसी ओर आ निकले ।
उन्हे देख साधककी चेतनामें पूर्व साधन-संस्कारोंके साथ गहरी आत्मग्लानिका उदय हुआ । कुटी-द्वारसे उठकर वह उनकी ओर बढ़ा।
महागुरु उसे अपनी ओर आता देख रुके और लोट पड़े।
अपने पतनके प्रति आत्म-ग्लानि और गुरु के प्रति श्रद्धासे आतुर वह रोता-बिलखता उनके पीछे लगा । साधकको गतिके साथ गुरुको धावनगति भी तीव्र हुई । अब वह पूरे वेगके साथ गुरुके पीछे दौड़ रहा था।
सामने नदी थी । गुरु उसीमे कूदकर गहरे जलमें जा पहुंचे।
साधकका मार्ग रुक गया। तटपरसे ही विलख कर उसने पुकारा'गुरुदेव !'