________________
१२
मेरे कथागुरुका कहना है
प्राप्त करके अपने अधिकारमे रख ली जाती है उसका रस सूख जाता है । अब मैं तुम्हें सुख नं ० ४ दूँगा और बिना मूल्य ही दूँगा, क्योंकि चाँदीसोनेकी कम हैसियतीका अनुभव पाकर अबकी बार तुम कोई क़ीमत लेकर नहीं आये हो ।
इतना कहकर उसने अपने हाथकी उँगलीमें पहनी हुई दो अंगूठियोंमे - से एक उतारकर मेरी उँगली में पहना दी । अँगूठीपर लिखा हुआ था— 'सुख नं० ४, प्रगति मुद्रिका ।'
इस सुख नं० ४ को हाथमें पहनकर मैं अपने घर लौटा।
इस सुख
मुद्रिकाका फल यह है कि इसे पहने हुए तन और मनके सुख और दुःख सभी साधारण रूपमें मुझपर आते हैं और जब तक टिकते है, तब तक के लिए अपना प्रभाव डालकर चले जाते हैं । किन्तु जो काम मुझे करना होता है, उसे मैं अपने तन मनके एक नहीं तो किसी दूसरे अवयव से बराबर करता रहता हूँ और उसमें कोई बाधा नहीं पड़ती । इस निर्विघ्न, निरन्तर क्रियागतिमें एक ऐसा नये प्रकारका सुख है, जो किसी भी क्षण मेरे लिए अप्राप्य नहीं है ।
X
X
X
अपने कथागुरुके संकेतपर मेरा अनुमान है कि सुखोंकी उस दुकान मे कुछ अगले नम्बरोंके सुख अभी और विद्यमान हैं, किन्तु उनके लिए मुझे अब उस दूकानपर जाना नहीं पड़ेगा और वह सुखोंका धनी दूकानदार स्वयं ही मेरे पास आकर यथासमय उन्हें मेरे हाथों भेंट करेगा ।