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अस्तेयमहाव्रत की पांच भावनाएं
समानधामिकेभ्यश्च तथावग्रह-याचनम् । अनुज्ञापितपानान्नाशनमस्तेय-भावनाः ॥२९॥ [युग्मम्]
अर्थ मन से विचार करके अवग्रह (रहने को जगह) को याचना करना; मालिक से बार-बार अवग्रह की याचना करना; जितनी जगह को आवश्यकता हो, उतनी ही जगह को रखना; स्वधर्मी साधु से भी अवग्रह की याचना करके रहना या ठहरना, गुरु की आज्ञा से आहार-पानी का उपयोग करना, ये पांच अस्तेय (अचौर्य) महाव्रत की भावनाएं हैं।
व्याख्या साधुसाध्वियों को किसी भी स्थान पर रहने या ठहरने से पूर्व उस स्थान व स्थान के मालिक आदि के विषय में मन में भलीभांति चिन्तन करके उससे रहने या ठहरने की याचना करनी चाहिए। इन्द्र, चक्रवर्ती, राजा, गृहपति और सार्मिक साधु; इस तरह पांच प्रकार के व्यक्तियों के अवग्रह कहे हैं । आगे-आगे का अवग्रह बाध्य है और पीछे-पीछे के अवग्रह बाधक हैं। इसमें देवेन्द्र का अवग्रह इस तरह समझना-जैसे सौधर्माधिपति देवेन्द्र, दक्षिण-लोकार्ध का और ईशानाधिपति शकेन्द्र उत्तर-लोकार्ध का स्वामी माना जाता है। इसलिए जिस स्थान का कोई भी मालिक लोकव्यवहार में न हो, उस अवग्रह का मालिक पूर्वोक्त न्याय से देवेन्द्र माना जाता है । जिस चक्रवर्ती या सामान्य राजा के अधिकार में जितना राज्य हो, उतना (भरत आदि) क्षेत्र उसका अवग्रह माना जाता है । जिस घर का जो मालिक हो, वह उस घर का गृहपति माना जाता है । उसका अवग्रह गृहपति-अवग्रह कहलाता है । इसे शास्त्रीय परिभाषा में शय्यातर (वस्ती या मकान का मालिक भी कहते हैं। अगर किसी स्थान या मकान में पहले से साधु ठहरे हुए हों और गृहस्थों ने उन्हें स्थान दिया हुआ है, तो वहां सामिक-अवग्रह होता है, उन्हीं से याचना करके नये आने वाले साधु को ठहरना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक अवग्रह को • बान कर विधियुक्त क्रम से रहने की याचना करनी चाहिए (१) मालिक से याचना नहीं करने से परस्पर विरोध पैदा होने पर अकारण ही लड़ाई-झगड़ा या किसी प्रकार का क्लेश, झंझट आदि इहलोक-सम्बन्धी दोष पैदा होते है, और बिना दिये हुए स्थान का सेवन करने से पापकर्म का बन्ध होता है। परलोक में भी दु.ख पाता है। इस प्रकार पहली भावना हुई (२) मालिक के द्वारा एकबार अनुज्ञात (माज्ञा दिये) स्थान (अवग्रह, की बार बार याचना करते रहना चाहिए ; संभव है, पहले प्राप्त हुए स्थान में और रोगी, ग्लान, वृद्ध, अशक्त साधु या साध्वी के मलमूत्र आदि परठने देने में गृहपति ऐतराज मानता हो; इसलिए उसके सामने पूरा स्पष्टीकरण करके हाथ-पैर या पात्र धोने अथवा मलमूत्र परठने आदि के लिए जगह की याचना करके अनुमति प्राप्त करनी चाहिए, ताकि अवग्रह-दाता के चित्त में क्लेश न हो, प्रसन्नता रहे । इस प्रकार की यह दूसरी भावना पूर्ण हुई । (३) तीसरी भावना यह है कि साधु को यह विचार करना चाहिए कि मुझे अपने ध्यान, स्वाध्याय, आहार अदि करने के लिए इतनी सीमा (हद) तक ही जगह की जरूरत है। इससे अधिक जरूरत नहीं है. तो उतने ही अवग्रह की याचना व व्यवस्था करूं । इस तरह अवग्रह धारण करने से और उसके अदर ही कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, माहार आदि क्रिया कर लेने से दाता को परेशानी नहीं होती। नहीं तो, कई बार दाता के अपने उपयोग के लिए जगह थोड़ी रहने से उसे परेशानी होती है, साधु को भी जरूरत से ज्यादा जगह