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चिलातीपुत्र के जीवन में योग का चमत्कार
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व्याख्या तत्काल स्त्रीहत्यारूप महापाप करने में शूरवीर, दुरात्मा चिलातीपुत्र को दुर्गति से बचाने वाले योग की कौन स्पृहा (अभिलाषा) नहीं करेगा ? अर्थात् ऐसे योग-साधन की सभी इच्छा करेंगे। नीचे हम चिलाती पुत्र की कथा दे रहे हैं
चिलातीपुत्र की कथा क्षितिप्रतिष्ठित नगर में यज्ञदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह अपने आपको पंडित मानता था, किन्तु जनधर्म की सदैव निंदा करता था । एक शिष्य (मुनि) को यह बात सहन नहीं हुई । उसके गुरु के रोकने पर भी उसने उस ब्राह्मण को हराने की दृष्टि से वाद-विवाद के लिए ललकारा । दोनों में ऐसी शर्त तय हुई कि वादविवाद में जो हारेगा, वह विजेता का शिष्य बन जायेगा । जैनवादी बुद्धिकौशल मुनि ने शास्त्रार्थ में अपने प्रतिवादी ब्राह्मण को निरुत्तर कर दिया। यज्ञदेव को अपनी हार माननी पड़ी और विजेता जैनमुनि ने प्रतिज्ञानुसार यज्ञदेव-ब्राह्मण को जैनदीक्षा देदी । दीक्षा लेने के बाद शासनदेवी ने यज्ञदेव को समझाया कि अब आपने चारित्र (पंचमहाव्रत) प्राप्त कर लिया है, अतः आप ज्ञानी और श्रद्धावान् बन गये हैं। अब चारित्र की विगधना मत करना । लेकिन यज्ञदेवमुनि चरित्रपालन तो यथार्थरूप से करता था; मगर पूर्वसंस्कारवश वस्त्र और शरीर पर जम जाने वाले मैल के प्रति घृणा करता था। सच है, 'पूर्व संस्कार छोड़ना अतिकठिन है।' इस महामुनि के संसर्ग से यज्ञदेवमुनि की सज्जनता भी उसी प्रकार शान्त न हुई, जैसे वर्षाऋतु के मेघ के सम्पर्क से सूर्यकिरण शान्त नहीं होती। जिसके साथ उसका विवाह हुआ था, वह भी उस पर अत्यन्त अनुरक्त थी। जैसे नीले रंग से रंगी हुई साड़ी का रंग नहीं छूटता, वैसे ही उसका यज्ञदेव पर से राग नहीं छूटा। उसने यज्ञदेवमुनि को वश करने के विचार से पारणे के भोजन में कोई ऐसा वशीकरण चूर्ण डाल दिया, जिसके प्रभाव से कृष्णपक्ष के चन्द्रमा की तरह यज्ञदेवमुनि का शरीर दिनोंदिन क्षीण होता गया। चन्द्र जैसे अस्त होने पर सूर्यमण्डल में प्रविष्ट हो जाता है, वैसे ही एक दिन देहावसान होने पर वह मुनि वहाँ से स्वर्ग में गया। सच है, कामिनी रागी या वैरागी किसी को नष्ट किये बिना नहीं छोड़ती। मुनि (पति) की मृत्यु हो जाने से उसकी पत्नी ने संसारविरक्त हो कर मनुष्य-रूपी वृक्ष के फलस्वरूप संयम (साध्वीदीक्षा) अंगीकार लिया। पति पर अपने द्वारा किये गये वशीकरण-प्रयोग के पाप की आलोचना किये बिना ही वह मर कर देवलोक में उत्पन्न हुई। सचमुच, 'तप-संयम निष्फल नहीं जाता।' उधर यज्ञदेव के जीव ने देवलोक से च्यव कर राजगृह नगर में धन्य सार्थपति के यहाँ चिलाती नाम की दासी के पुत्ररूप में जन्म लिया। चिलातीदासी का पुत्र होने से लोगों में वह चिलातीपुत्र के नाम से पुकारा जाने लगा। इसलिये उसका दूसरा नाम नहीं रखा गया। पुत्रजन्मोत्सव तो दासी के पुत्र का होता ही क्या ! यज्ञदेव की पत्नी स्वर्ग से व्यव कर धन्य सार्थपति की पत्नी भद्रा की कुक्षि से पांच पुत्रों के बाद सुषमा नाम की पुत्री के रूप में पैदा हुई । उस पुत्री की देखभाल रखने के लिए सेठ ने चिलातीपुत्र को नियुक्त कर दिया। चिलातीपुत्र सयाना होते ही बड़ा उद्दण्ड हो गया । वह लोगों को सताने लगा। उसकी शिकायत राजा तक पहुंची । सेठ को राजभय लगा। क्योंकि उसे यह खतरा दिखाई देता था कि 'सेवक के अपराध से स्वामी ही दंड का भागी होता है। अतः सेठ ने समझदारी से सतत उपद्रवी उस दासीपुत्र (चिलातीपुत्र) को उसी तरह घर से चुपचाप निकाल दिया, जैसे सपेरा सांप को पिटारे से बाहर निकाल देता है। इससे चिलातीपुत्र के मन में भयंकर प्रतिक्रिया जागी। वह उद्दण्ड तो था ही। अपनी उद्दण्डता को सार्थक करने के लिए